BEEF EATING VS SPRITUAL ASPECT IN INDIAN MYTHOLOGY
RELATION OF COW WITH DEMON VALA, COW VERSUS HORSE,COW VS DAWN IN INDIAN MYTHOLOGY
COW VS BITCH SARMA, COW VS COWSHED, COW VS CALF IN INDIAN MYTHOLOGY
COW VS WISDOM AND BARLEY IN INDIAN MYTHOLOGY
QUOTATIONS FROM BRAAHMANA TEXTS
QUOTATIONS FROM UPANISHADIC TEXTS
QUOTATIONS FROM OTHER VEDAANGA TEXTS
DEMON VALA AND COW
As has been stated elsewhere in this website, the state before sunrise is called a goat, the state at sunrise is called a sheep, the state of mid - day is called a cow and the state of afternoon is called a horse. In case of demon Vala, the state of sheep is important. Sheep has plenty of hair and these hair in Indian mythology are called Vaala, or scattered rays. When one develops an aura around his face, as is depicted in case of pictures of great personalities, this is the state of Vaala or Vala. One needs to go further than that. One has to absorb this radiation within his body. This state will be called cow.
In Indian mythology, when demon Vala is killed by Indra, his parts fall on the earth and are converted into different gems. This statement is important because gems are supposed to concentrate the energy of this universe. This type of gems have been given the name of dice or axis in mythology. There is reference in Rigveda that one should not play dice with these gems and that the cows are the play of dice or player itself. It is possible that absorption of sunrays inside oneself can take place only when his body parts become gems. The more we are able to absorb rays of the sun inside ourselves, the lesser will be the dependence on the rays of the outer sun of this universe.
वल असुर और गौ
सर्वमान्य सिद्धान्त यह है कि किसी तथ्य को तभी व्यक्त किया जाए जब पहले उसका साक्षात्कार हो जाए । वर्तमान लेखन में इस नियम का पालन नहीं किया जा रहा है और केवल वैदिक साहित्य में उपलब्ध कथनों की विवेचना इस आशा से की जा रही है कि साक्षात्कार के अभाव में भी यह उपयोगी होगी ।
ऋग्वेद २.१२.३, २.१४.३, २.२४.३, १०.६२.२, १०.६८.५, १०.६८...५, १०.६८.९-१० आदि में इन्द्र, बृहस्पति आदि द्वारा वल असुर का वध करके उसके द्वारा अपहृत गायों को प्राप्त करने के उल्लेख आते हैं । जैसा कि अन्यत्र भी उल्लेख किया जा चुका है, छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार सूर्य उदय से पूर्व की अवस्था अजा,सूर्योदय की अवस्था अवि, मध्याह्न काल की अवस्था गौ और अपराह्न काल की अवस्था अश्व कहलाती है । वर्तमान वल असुर के संदर्भ में अवि अवस्था महत्त्वपूर्ण है । अवि घने बालों वाली होती है और इन बालों को वाल या वल कहा गया है । ऐसा अनुमान है कि जब मुख से प्रकाश निकलता जान पडे, जैसा कि आभामण्डल महापुरुषों के चित्रों में दिखाया जाता है, वह वाल अवस्था है । यदि कोई दिशा निर्देश उपलब्ध न हो तो यही कहा जाएगा कि यह सर्वोच्च अवस्था होगी । लेकिन वैदिक व पौराणिक साहित्य संकेत देता है कि ऐसा नहीं है । आवश्यकता इस बात की है कि जो प्रकाश निकला है, वह अब शरीर में अवशोषित हो । यह वल असुर का वध होगा और गौ अवस्था का आरम्भ होगा । पौराणिक साहित्य में वल असुर के सम्बन्ध में २ तथ्यों का सार्वत्रिक रूप से उल्लेख है - एक तो यह कि इन्द्र द्वारा वल असुर के वध पर वल के विभिन्न अङ्गों के रस पृथिवी पर गिरे और वह विभिन्न प्रकार के रत्न बन गए । दूसरा तथ्य यह है कि इन्द्र ने वल असुर का वध सन्ध्या काल में किया । वल असुर के जन्म का काल तो सन्ध्या काल है ही (सूर्योदय), अब पौराणिक साहित्य उसके वध का काल भी सन्ध्या काल बताता है तो इसका निहितार्थ क्या है, यह अन्वेषणीय है । वल असुर के अङ्गों के पृथिवी पर गिरने पर विभिन्न रत्नों में परिवर्तित होने के कथन को इस प्रकार समझा जा सकता है कि रत्नों को एक प्रकार के अक्ष कहा जा सकता है । अक्ष का कार्य यह होता है कि अक्ष अपने परितः प्रवाहित ऊर्जा मण्डल को आकर्षित कर लेता है और वह अक्ष के माध्यम से प्रवाहित होने लगता है । उदाहरण के लिए, चुम्बक । गौ का भी लगता है कि यही कार्य है । ऋग्वेद १०.३४.३ में उल्लेख आता है कि अक्षों से जुआ न खेले, कृषि करे, और कि वहां गायें कितव/जुआ हैं । एक संभावना यह है कि अपने अन्दर के सूर्य से निकली रश्मि/गो का अवशोषण निम्न स्तर के व्यक्तित्व में तभी होगा जब वह अक्ष बन जाएगा । आज विज्ञान में भारी प्रयत्न चल रहे हैं कि किसी प्रकार से ब्रह्माण्ड के सूर्य की किरणों को अवशोषित करके उन्हें अन्य प्रकार की ऊर्जा में रूपान्तरित किया जाए और उसका उपयोग किया जाए । पुस्तक A Quest for New Materials में डा. एस.टी. लक्ष्मीकुमार का कथन है कि सामान्य अवस्था में पेड – पौधों की प्रकाश अवशोषण की क्षमता कुल मिलाकर एक प्रतिशत से अधिक नहीं बैठती । आशा यह है कि अपने अन्दर के सूर्य की किरणों का अवशोषण हम जितनी दक्षता पूर्वक कर पाएंगे, बाहर के सूर्य पर हमारी निर्भरता उतनी ही कम होती जाएगी ।
COW AND HORSE
As guessed from Chhaandogya Upanishada, the state of mid day is the state of cow and that of afternoon is that of horse. In the afternoon, the sunrays do not completely disappear, but it is expected that the horse is a state where one becomes inward? It is stated in mythology that sun moves in the sky as a horse. The reference of Rigveda 10.34.13 where there is directive that one should not play dice with gems, one should plough with them and that cows are the play of dice is important to understand difference between cow and horse. In puraanic literature, there is a universal statement of the placement of different gods in different parts of cow. The purpose behind this statement seems to be how to make different body parts of a cow perfect gems. The relation between gems/dice and horse has already been put forward by Dr. Fatah Singh at several places. In brief, the gems/dice represent penances limited to oneself, while the horse represents progress in unison with others, with the whole society. Combination of the two types is essential. The legendry king of puraanas knew the art of horse, but not that of gems. He could regain his consort Damayanti only when he was able to learn the art of gems, and as soon as he learnt the art of gems, sins came out of his body. Dr. Lakshmi Narayana Dhoot has gone one step further than this and has suggested that what is called the play of dice of gems, is actually the chance theory of nature. Every event in nature takes place as a chance. But as one goes beyond nature, towards Purusha, one finds a chain of cause and effect behind every event in nature. This may be the real difference between cow and horse. Until one is giver and one is acceptor of sunrays, then play of dice will take place. This is the state of cow. When only one sun remains, then there will be state of horse. The word meaning of horse, Ashwa is - where there is no future, only present.
Regarding the calling of a guest as killer of cow by Grammarian Paanini, the coming of guest is a chance and cow is also connected with chance. Then how a guest can be the killer of cow is a subject to be investigated further. Waxing and waning of moon gives rise to different days of a fortnight in Indian mythology. If there is no waxing and waning, then there will be no separate day of a fortnight. This is what is implied by the sanskrit word Atithi - without separate days. It has been stated in puraanic literature that whatever part of moon is lost in the sky, that is absorbed by herbs on the earth. Hence, if there is no waxing and waning of moon, then its connection with the earth, which is a cow, will be lost and that can be interpreted as killing of cow.
In nature, the earth revolves around the sun. But there are stories in puraanas where a horse appears before a sage which is able to revolve around the earth. Esoteric meaning of this fact is open for investigation.
It is important to state that in modern sciences, there is confusion about the nature of sunrays - whether these have particle or quantum nature, or wave nature. Some physical events can be explained on the basis of particle nature while others on the basis of wave nature.
गौ और अश्व
छान्दोग्य उपनिषद २.१४.१ व २.१८.१ की तुलना करने पर यह अनुमान लगता है कि गौ मध्याह्न की अवस्था है और अश्व अपराह्न की । गौ उद्गीथ है तो अश्व प्रतिहार । अष्टाङ्ग योग के संदर्भ में भी प्रतिहार शब्द आता है जिसका अर्थ अपनी इन्द्रियों को विषयों से हटाना, अन्तर्मुखी होना लिया जाता है । सूर्य के संदर्भ में उल्लेख आते हैं कि सूर्य अश्व बन कर आकाश में गति करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि सूर्य की एक अवस्था ऐसी भी है जहां उससे किरणों का निकलना समाप्त तो नहीं, लेकिन एक गौण घटना हो जाती है(अ - श्व, जहां भविष्य का कल नहीं है । किरणों के निकलने से भविष्य का निर्माण होता है ) । गौ और अश्व के अन्तर को समझने के लिए ऋग्वेद १०.३४.१३ महत्त्वपूर्ण है जहां निर्देश है कि अक्षों से जुआ न खेले, उनसे कृषि करे , और कि वहां गायें कितव हैं । कितव शब्द को चाहे तो जुए के अर्थ में लिया जाए, या जुआरी के अर्थ में, इतना तो स्पष्ट है कि गौ के साथ किसी प्रकार से कितव और अक्ष जुडा हुआ है । पौराणिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से गौ के विभिन्न अङ्गों में विभिन्न देवताओं की स्थिति का वर्णन किया जाता है और अथर्ववेद सूक्त ९.१२/९.७ तथा ९.४ इसका आधार प्रतीत होता है । लगता है कि यह निर्देश इसलिए है कि गौ के सब अङ्गों को परिपूर्ण अक्ष कैसे बनाया जाए । अक्ष और अश्व में सम्बन्ध की व्याख्या डा. फतहसिंह द्वारा कईं स्थानों पर की जा चुकी है । इस व्याख्या का निष्कर्ष यह है कि अक्ष एकाङ्गी साधना है, अश्व सार्वत्रिक साधना है । दोनों का समन्वय आवश्यक है । पुराणों का राजा नल अश्व विद्या जानता था लेकिन अक्ष विद्या नहीं । अपनी खोई हुई रानी दमयन्ती को वह तभी प्राप्त कर सका जब उसने अक्ष विद्या सीख ली । अक्ष विद्या सीखते ही उसके शरीर से पाप/कलि बाहर निकल कर खडे हो गए । डा. लक्ष्मीनारायण धूत ने अक्ष विद्या की इससे आगे व्याख्या की है । उनके अनुसार जिसे अक्ष विद्या या द्यूत कहा जाता है, वह प्रकृति का चांस है । कोई घटना कैसे घटित होती है, यह आकस्मिक है । उसके पीछे कोई नियम काम नहीं कर रहा है । सारी प्रकृति चांस पर, द्यूत पर आधारित है । लेकिन जब हम प्रकृति से ऊपर पुरुष की ओर जाते हैं तो वहां कोई घटना चांस नहीं रह जाती, द्यूत समाप्त हो जाता है, घटनाओं के घटित होने के पीछे कारण समझ में आने लगता है । यही स्थिति गौ और अश्व की हो सकती है । गौ के संदर्भ में सूर्य किरणों का दाता है, पृथिवी प्रतिगृहीता है । जब तक यह द्वैत की स्थिति रहेगी, द्यूत विद्यमान रहेगा । जब केवल सूर्य ही एकमात्र रह जाए, तब द्यूत की स्थिति समाप्त हो जाएगी । अश्व शब्द की निरुक्ति भी अ - श्व, जहां भविष्य का कल नहीं है, केवल वर्तमान विद्यमान है, के रूप में की जाती है ।
पुराणों में गोभिल ऋषि के संदर्भ आते हैं । भिल्ल धातु छेदने के अर्थ में आती है । अतः गो - भिल्ल का अर्थ गो का छेदन, नाश करने वाला हो सकता है । लेकिन पौराणिक कथाओं में गोभिल ऋषि का उल्लेख यज्ञ के ऋत्विजों में उद्गाता के रूप में आता है । देवीभागवत पुराण की एक कथा में गोभिल ऋषि अपने यजमान को मूर्ख पुत्र उत्पन्न करने का शाप देते हैं और फिर प्रसन्न होने पर उस मूर्ख के विद्वान बन जाने का उत्शाप देते हैं । गौ पृथिवी से सम्बन्धित है और पृथिवी वाक् से । वाक् सरस्वती है । अतः यदि गौ तत्त्व का विकास नहीं हुआ तो वाक्, आत्मा की आवाज अविकसित ही रह जाएगी ।
गोभिल के साथ - साथ गोघ्न: ( ऋग्वेद १.११४.१०) शब्द भी विचारणीय है । पाणिनि ने अतिथि को गोघ्न: कहा है । अतिथि का आगमन एक आकस्मिक घटना होती है और गौ भी चांस से सम्बन्धित है । फिर अतिथि गोघ्न: कैसे हो सकता है, यह विचारणीय है । तिथि का उदय इसलिए होता है कि चन्द्रमा की कलाएं घटती - बढती हैं । जब चन्द्रमा की ह्रास - वृद्धि समाप्त हो जाए, उसे भी अतिथि कहा जा सकता है । चन्द्रमा की जितनी कलाएं नष्ट होती हैं, वह पृथिवी पर ओषधियों में समा जाती हैं , ऐसा पुराणों का कथन है । अतः यह सम्भव है कि जब चन्द्रमा का पृथिवी से सम्बन्ध समाप्त हो जाए, वह गोघ्न: की स्थिति होगी ।
पुराणों की कथा में गालव ऋषि के समक्ष एक अश्व प्रकट होता है जो पृथिवी की परिक्रमा करने में समर्थ है । गालव का अर्थ होता है गायों का नाश करने वाला । ब्रह्माण्ड में तो पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है, लेकिन पौराणिक कथाओं में सूर्य रूपी अश्व की विशेषता यह बताई गई है कि वह कुवलय है, अर्थात् पृथिवी की परिक्रमा करता है । निहितार्थ अन्वेषणीय है ।
यह महत्त्वपूर्ण है कि आधुनिक विज्ञान में सूर्य की किरणों की प्रकृति के सम्बन्ध में भ्रम की स्थिति है कि यह किरणें कण रूप( क्वाणा) होती हैं या तरङ्ग रूप । कुछ भौतिक घटनाओं की व्याख्या कण रूप से होती है तो कुछ की तरङ्ग रूप से ।
USHAA AND COW
There are references of two types of Ushaas or goddess of dawn in vedic literature - cow type and horse type. Further, Ushaa has been divided into two parts - one of earlier type and the other of new type. Ushaa has also been called the mother of cows.
It seems strange that in the sacred text called Shatapatha Brahmana, the chapter of arrangement of fire starts with procurement of Ukhaa. This ukhaa is given the shape of a cow having nipples also. Later on, the whole arrangement of fire seems to be being done around this ukhaa. On one side there is ukhaa having nature of cow, on the other side is the goddess of dawn Ushaa having double nature of cow and horse.
As has been stated in the comment on Ushaa, at dawn, all creatures are awakened. The actual awakening is one where there is lowest disorder. This disorder in modern scientific language is called entropy. The purpose behind the whole arrangement of fire is to keep the entropy minimum. Entropy is of two types - reversible and irreversible, just like earlier and newer Ushaa. In vedic literature, the cows have been stated to milch the irreversible or earlier types of Ushaas.
उषा व गौ
ऋग्वेद की ऋचाओं में अश्वावती और गोमती प्रकार की उषाओं के उल्लेख आते हैं ( ऋग्वेद १.४८.२, १.९२.१४, १.१२३.१२, २.२८.२, ७.४१.७, ७.८०.३ ) । ऋग्वेद ३.५५.१ व ६.२८.१ में गायों को पूर्वी उषाओं का दोहन करने वाला कहा गया है । ऋग्वेद १.९२.१, १.१२४.५, ४.५२.२-३ तथा ७.७७.२ में उषा को गायों की माता कहा गया है । ऋग्वेद ७.७६.६ में उषा को गायों की नेत्री कहा गया है ।
यह आश्चर्यजनक है कि शतपथ ब्राह्मण में जहां अग्निचयन प्रकरण आरम्भ होता है( काण्ड ६), वहां सबसे पहले उखा सम्भरण का कार्य किया जाता है । उखा को अप्रत्यक्ष रूप से एक गौ का आकार दिया जाता है जिसके स्तनों का भी निर्माण किया जाता है । बाद में संभवतः उखा के परितः सारा अग्निचयन की इष्टकाओं को स्थापित करने का कार्य किया जाता है । एक ओर उखा रूपी गौ है तो दूसरी ओर द्वैध प्रकृति वाली उषा । ऋग्वेद की ऋचाओं में कहा गया है कि सूर्य उषा में रेतः सिंचन करता है । इससे आदित्य पुत्र का जन्म होता है । इसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि पृथिवी में रेतः सिंचन का कार्य सूर्य की किरणों रूपी गायों द्वारा सम्पन्न होता होगा ?
उषा की टिप्पणी में यह स्पष्ट किया गया है कि उषा काल में सोए प्राणी जाग जाते हैं, सोए प्राण जाग जाते हैं । वास्तविक जागरण वह प्रबोध है जिसमें अव्यवस्था न्यूनतम रहती है । अव्यवस्था को वर्तमान विज्ञान की शब्दावली में एण्ट्रांपी कहा जाता है । अव्यवस्था को न्यूनतम रखने के लिए ही चिति, संचिति आदि का सारा उपक्रम किया जाता है । एण्ट्रांपी २ प्रकार की होती है - व्युत्क्रमणीय/रिवर्सिबिल तथा अव्युत्क्रमणीय/इर्रिवर्सिबिल । इसी प्रकार उषा २ प्रकार की होती है - पूर्वा और नूत्ना । उषा का आविर्भाव प्रतिदिन होता है । ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि प्रतिदिन उषा ठीक पहले दिन के जैसे घटित हो जाए तो वह नूत्ना कहलाएगी । यदि ऐसा न हो पाए तो वह पूर्वा, मर्त्य स्तर की कहलाएगी । गायों को केवल पूर्वा उषाओं का दोहन करने वाला कहा गया है ।
गौ और अश्व के संदर्भ में गौ का सम्बन्ध अक्ष से, द्यूत से जोडा गया है । अक्ष का कार्य ब्रह्माण्ड की चेतना को स्वयं में केन्द्रित करना होता है । अक्ष की अव्यवस्था जितनी कम होगी, यह कार्य उतने ही अधिक सुचारु रूप से सम्पन्न किया जा सकेगा ।