पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (From Paksha to Pitara ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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The story of Parashuraama can be read on either Wikipedia or Parashurama etc.
In normal
sense, Parashu is the axe by which the wood from a tree is cut. Let us see what
type of mystical web has been woven around it in vedic and puraanic literature.
In Somayaaga, a wooden post is established in the far east. This post is made by
cutting out the branches of a tree with the help of an axe or parashu. It has
been said that this is not an ideal condition. The branches should have become
dried by themselves. Cutting them is a heinous act. In spirituality, this
statement can be taken in the way that there are some sins which automatically
leave us. The reason behind is the surrounding
atmosphere, society. But there are some sins for the removal of which one
has to make special efforts. This is the cutting by an axe.
There are two apparently similar words in Sanskrit : parashu and Parshu.
One means axe and the other means a rib. Vedic mantras refer to both in one
mantra and this indicates that there is some connection between the two. The
mantra states that parshu/rib is the alter of a yaaga. Commentator Saayana
states that the cutting of grass in yaaga is done by a rib(of a horse) and the
cutting of trees is done by parashu/axe. One mantra states that the parshu/rib
is human , the daughter of lord Manu and that she gives birth to 20 all at a
time. One other mantra states that the cutting of grass is done by knowledge.
The key to understand the words parashu/axe and parshu/rib is the
Snaskrit root to touch. Touch may be interpreted in several ways. One way
is that when one comes down from trance, then he has been stated to acquire the
sense of touch first. Then he gradually acquires the senses of form, taste and
smell. The other interpretation can be on the basis of Vipashyanaa meditation.
When one tries to see his breath inside, it touches several parts of the body.
In an ideal condition, the breath should touch each and every part.
Wherever there is touch, that part of the body becomes pure. Thus, when
vedic matra talks of parshu/rib as the altar of yaaga, it may mean that the real
altar is the body itself. One has to separate the part touched by breath from
the untouched part. This can be done with the help of parshu/axe. In vedic
terminology , this will be called cutting of tree by the axe.
There is a puraanic story of a yogi providing a touch stone to a devotee
for conversion of iron into gold. But the devotee throws it in a river. Then
when a yogi demands his stone back, the devotee shows him the thorns in the
river all of which turn into touchstones. Here the thorns are the thrillings
experienced in observation of breath. The part of the body which experiences
thrilling can be called a sacred wooden post of somayaaga while the part not
experiencing it should be separated out. This part of body energy is used for
running of daily life. In the story
of Parashuraama, he propitiates forefathers with this energy. It is noteworthy
in this story that propitiation of forefathers has been much highlighted in
puraanic stories but the other part, propitiation of gods has been almost
neglected. This appears in one vedic mantra only.
When vedic literature talks of parshu/rib, then it does not forget to
talk of two sides of the body. These two parts have been called white and dark,
or sun and yama etc. This further becomes the basis of the story of Parashuraama
slaying Kaartaveerya Arjuna. Kaartaveerya has formed two types of armours around
himself one acquired from lord Shiva and the other from Vishnu. Parashuraama
is able to slay him only when these two armours are taken back from him. In
broad sense, on can understand these two types in the light of two sides
dark and white, or sun and yama etc. The
armours can also be taken to mean the covers of sins of previous births which
one is carrying with himself in the present birth.
When lord Parashuraama finishes slaying his enemies, then he starts
penances at the place Pushkara. There are three levels of Pushkara high,
medium and low. At medium level, Parashuraama is able to hear the reason behind
the failure in his penances in the form of a talk between the pair of dear who
narrate the incidents in previous births. He also hears how he can achieve
success. He has to go to sage Agastya to learn the chant for achieving success.
He does so. He has to learn the mystery behind the love of Krishna (with Raadhaa?).
The secret behind this part of the story can be revealed on the basis of a verse
of Bhaagavata puraana which states that one has to express love in God,
friendship with his devotees, benevolence on those whose energies are scattered
and disregard for those who have aversion. It is a guess that in the present
story, the benevolence factor has been incorporated in the form of armours,
because in the formation of a divine armour, one has to invoke gods with their
different names for different parts of the body(See also : Esoteric
aspect of Armour). परशु टिप्पणीः- परशु का प्रयोग सोमयाग में यूप के निर्माण हेतु वृक्ष की शाखाओं को काटने के लिए होता है। शतपथ ब्राह्मण ५.३.२.५ में कहा गया है कि जो यह परशु से काटा जाता है, यह वारुण्य है, वरुण की प्रकृति का है। दूसरी ओर, जो शाखा स्वयं शुष्क हो जाती है, वह मैत्र है। इस कथन को इस प्रकार समझा जा सकता है कि कुछ पाप ऐसे होते हैं जो नैसर्गिक रूप से हमसे अलग हो जाते हैं। इसका कारण हमारे परितः स्थित समाज, परिवेश होता है। उसके लिए कोई प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती। यह मित्र की स्थिति है। दूसरी ओर, कुछ पाप ऐसे होते हैं जिनको दूर करने के लिए हमें जप, तप करने की आवश्यकता होती है। यह वरुण की स्थिति है, परशु की स्थिति है। इसे क्रूर कहा गया है(शांखायन ब्राह्मण १०.१ इत्यादि)। परशु शब्द को आगे समझने के लिए पर्शु और परशु शब्दों का अन्तर समझ लेना होगा। वैदिक साहित्य में पर्शु शब्द में प अक्षर उदात्त है जबकि परशु में श उदात्त है। लेकिन कुछ ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं कि इन दोनों शब्दों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। तैत्तिरीय संहिता ३.२.४.१ में परशु के संदर्भ में निम्नलिखित वाक्य का प्रयोग हुआ है स्फ्यः स्वस्तिर्विघनः स्वस्तिः पर्शुर्वेदिः परशु्र्नः स्वस्ति। इस यजु में पर्शु को वेदि कहा गया है। इस यजु के सायण भाष्य में कहा गया है कि यज्ञ में तृणादि के छेदन हेतु पर्शु का प्रयोग किया जाता है जबकि वृक्षादि के छेदन हेतु परशु का। इस कथन का सत्यापन ऋग्वेद १.१३०.४, ७.१०४.२१, १०.२८.८ आदि के आधार पर किया जा सकता है जहां परशु द्वारा वन के वृश्चन का उल्लेख है। अथर्ववेद ७.२९.१ में यह कथन कुछ भिन्नता से प्राप्त होता है- वेदः स्वस्तिर्द्रुघणः स्वस्तिः परशुर्वेदिः परशुर्नः स्वस्ति। पैप्पलाद संहिता २०.३०.४ में प्राप्त मन्त्र में द्रुघणः के स्थान पर द्रविणः शब्द प्रकट हुआ है। सामान्य भाषा में पर्शु पसली को कहते हैं। ऋग्वेद १०.८६.२३ ऋचा में उल्लेख आता है कि मानवी अर्थात् मनु की पुत्री पर्शु ने एक साथ २० की प्रसूति की या जन्म दिया। इसकी व्याख्या में तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.२.२.२ में अश्वपर्शु का उपयोग प्रसूति के लिए, विशेष प्रकार की प्रेरणा प्राप्त करने के लिए कहा गया है। यहां अश्वपर्शु का प्रयोग बर्हि के छेदन के लिए किया गया है। कहा गया है कि पर्शु द्वारा ओषधी का छेदन इस प्रकार होना चाहिए कि ओषधी की हिंसा न हो। चूंकि अश्व प्रजापति है और प्रजापति ओषधियों को पर्वशः जानता है, अतः अश्वपर्शु का प्रयोग किया जाता है। इससे आगे यजु प्रेयमगाद् धिषणा बर्हिरच्छा इत्यादि(तैत्तिरीय संहिता १.१.२.१) की व्याख्या में कहा गया है कि विद्या ही धिषणा है जो बर्हि का छेदन करती है। इससे आगे यजु मनुना कृता स्वधया वितष्टा की व्याख्या में कहा गया है कि पर्शु मानवी है और स्वधा कृता है। इस प्रकार पर्शु शब्द को स्त्रीलिङ्ग रूप दिया गया है जबकि परशु को पुल्लिंग। परशु व पर्शु को और अधिक स्पष्ट रूप में समझने के लिए उणादि सूत्र ५.२७ की निरुक्ति उपयोगी हो सकती है। इस सूत्र स्पृशेः श्वण्शुनौ पृ च के अनुसार पर्शु शब्द की व्युत्पत्ति स्पृ- स्पर्श धातु के आधार पर की गई है। तन्त्र साहित्य में प्रायः ५ तन्मात्राओं शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध का उल्लेख आता है। शब्द का महाभूत आकाश, स्पर्श का वायु, रूप का अग्नि, रस का जल और गन्ध का पृथिवी है। डा. फतहसिंह का विचार है कि यह समाधि से व्युत्थान की क्रमिक अवस्थाएं हैं जिसमें एक-एक संज्ञा का क्रमशः विकास होता जाता है। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि श्वास की विपश्यना में श्वास शरीर के अङ्गों को छूता सा प्रतीत होता है। श्वास किन अङ्गों को छू पाएगा, यह साधक पर निर्भर करता है। आदर्श रूप में श्वास को देह के कण-कण का स्पर्श करना चाहिए। जितना अधिक श्वास अन्दर प्रवेश करके स्पर्श करता चला जाएगा, उतनी ही देह पवित्र होती चली जाएगी। यह कहा जा सकता है कि तैत्तिरीय संहिता में जो पर्शुः वेदिः का उल्लेख है, वहां देह ही वेदी का रूप है। ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक साहित्य में परशु द्वारा यूप के निर्माण का जो चित्र प्रस्तुत किया गया है, उसमें देह रूपी वृक्ष के अन्दर जितने भाग का श्वास द्वारा स्पर्श होता है, वह तो यूप है, और जितने भाग का स्पर्श नहीं होता, उसको परशु द्वारा छिन्न करके अलग कर देना है। इस, संदर्भ में भविष्य पुराण ३.४.१० की कथा रोचक है। विष्णु-भक्त विष्णुदास द्विज की दरिद्र पत्नी को किसी यति ने कुछ समय के लिए स्पर्श मणि/पारस मणि दे दी और कहा कि इतने समय में वह इससे चाहे जितने लोहे को स्वर्ण में बदल सकती है। जब भक्त विष्णुदास घर आया तो वह बहुत क्रोधित हुआ कि हमारे घर में स्वर्ण का क्या काम? हम चोर की चिन्ता क्यों पालें? उसने वह स्पर्श मणि और सारा स्वर्ण उठाकर घर्घरा नदी में फेंक दिया। जब यति लौटकर आया तो उसने अपनी स्पर्श मणि वापस मांगी। यह पता लगने पर कि वह तो नदी में फेंक दी गई है, उसने आमरण अनशन की धमकी दी, क्योंकि उसने बडे यत्न से मणि को प्राप्त किया था। तब विष्णुदास ने उसको नदी में कांटे दिखाए और कहा कि यह सब स्पर्श मणियां हैं, वह जितनी चाहे लेले। वही विष्णुदास जन्मान्तर में फाल्गुन मास में चमकने वाला त्वष्टा नामक सूर्य बना। इस कथा में जिन कंटकों का उल्लेख है, वह सब श्वास की विपश्यना में अनुभूत रोमांच के प्रतीक हैं। अतः जब वैदिक साहित्य में परशु के द्वारा यूप के तक्षण का उल्लेख आता है तो उससे यही अर्थ निकाला जा सकता है कि यूप एक आदर्श रोमाञ्च की अवस्था है। और देह का जो भाग रोमाञ्चित होने से रह गया है, वह परशुराम की कथा से प्रतीत होता है कि उसका सम्यक् उपयोग स्वधा की पुष्टि के लिए, डा. फतहसिंह के शब्दों में दैनिक जीवन व्यापार चलाने वाली चेतना की पुष्टि के लिए किया जाना अपेक्षित है। परशुराम क्षत्रियों का वध करके उनके रक्त से अपने पितरों का तर्पण करते हैं। यह स्वधा कहलाता है। दूसरी ओर, देवों को तृप्त करना स्वाहा कहलाता है। परशुराम की पौराणिक कथाओं में स्वाहा का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं है, लेकिन ऋग्वेद १०.११० के परशुराम ऋषि के सूक्त की अन्तिम ऋचा में स्वाहा शब्द भी प्रकट हुआ है। भविष्य पुराण की उपरोक्त कथा के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि फाल्गुन मास हास का, आह्लाद का मास है। देवीभागवत पुराण में देवी को परशु भेंट करने वाला विश्वकर्मा/त्वष्टा है। अतः यह कहा जा सकता है कि त्वष्टा का कार्य प्रफुल्लित चेतना को सुप्त चेतना से विलग करना है। उणादि कोश १.३३ में परशु के संदर्भ में एक और सूत्र प्राप्त होता है आङ्परयोः खनिशूभ्यां डिच्च। इसके अनुसार परशु में श वर्ण शृणाति, हनन करने के अर्थ में है। पुराणों में परशु का जो चित्र प्रस्तुत किया गया है, उसे समझने के लिए पर्शु के साथ साथ पार्श्व को भी समझना आवश्यक है। वैदिक साहित्य में दक्षिण और सव्य दो पार्श्वों का उल्लेख आता है। शतपथ ब्राह्मण १३.२.२.७ का कथन है कि सौर्ययामौ-श्वेतं च कृष्णं च पार्श्वयोः। कवचे एव ते कुरुते। तस्माद्राजा सन्नद्धो वीर्यं करोति। यहां दो पार्श्वों को सूर्य और यम प्रकार के तथा श्वेत व कृष्ण प्रकार के कहा गया है। साथ ही उन्हें राजा के कवच भी कहा गया है। तैत्तिरीय आरण्यक में भी दो पार्श्वों को श्वेत व कृष्ण कहा गया है। गोपथ ब्राह्मण १.३.१८ में दक्षिण पार्श्व को अध्वर्यु नामक यजुर्वेदी ऋत्विज का भाग तथा सव्य पार्श्व को उपगाता ऋत्विजों का भाग कहा गया है। तैत्तिरीय आरण्यक ३.१३.२ में अहोरात्र को पार्श्व द्वय कहा गया है। जैमिनीय ब्राह्मण १.४८ में मृत यजमान के दो पार्श्वों में मुसल व शूर्प रखे जाने का निर्देश है। यह उल्लेख महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अथर्ववेद ११.३.३ के प्रसिद्ध ओदन सूक्त में चक्षुर्मुसलं काम उलूखलं। दितिः शूर्पम् अदितिः शूर्पग्राही।। कहा गया है। यह सूक्त धान को कूट कर उससे शुद्ध तण्डुल व कण प्राप्त करने के संदर्भ में है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से धान्य के आवरण को हटाने से तात्पर्य अपने पुराऩे संस्कारों को हटाने से हो सकता है। शतपथ ब्राह्मण १२.५.२.७ में पार्श्वद्वय को शूर्पद्वय कहा गया है। पर्शु/पार्श्व तथा परशु में एक सूक्ष्म अन्तर उल्लेखनीय है। जैमिनीय ब्राह्मण २.२०८ में परशु को त्रिवृत् स्तोम से सम्बद्ध किया गया है जिसमें गायत्री छन्द होता है । यह सूक्ष्म होता है, तीक्ष्ण होता है। दूसरी ओर, पर्शुओं को बृहती छन्द(शतपथ ब्राह्मण ८.६.२.१०, षड्विंश ब्राह्मण १.३.८) तथा त्रिणव (त्रि नव २७) स्तोम (शतपथ ब्राह्मण १२.२.४.१३, १२.३.१.६, गोपथ ब्राह्मण १.५.३) से सम्बद्ध किया जाता है क्योंकि पर्शुएं दोनों ओर १३+१३ होती हैं। अथर्ववेद १२.३.३१ में पर्शु को ओषहा- ऊष्मा का नाश करने वाली कहा गया है। अथर्ववेद ११.३.१२ में पर्शुओं को सीता(शीता?) कहा गया है। अथर्ववेद ९.१२.६ में गौ की पर्शुओं को उपसद की संज्ञा दी गई है। यह विचारणीय है कि यदि पर्शुएं उपसद हैं तो प्रवर्ग्य क्या होगा? तैत्तिरीय संहिता ७.५.२५.१ में पर्शुओं को अहोरात्र कहा गया है। जब शतपथ ब्राह्मण १३.२.२.७ में पार्श्व-द्वय को सौर्य व यम प्रकार का कहा जाता है तो यह जमदग्नि शब्द की ओर ध्यान आकृष्ट करता है जिसको यमत्-अग्नि के रूप में, अग्नि का यमन करने वाले के रूप में लिया जा सकता है। यम का अर्थ होगा पापों का प्रक्षालन करके शुद्ध स्थिति में, न्यूनतर एण्ट्रांपी की स्थिति में पहुंचने वाला। जैमिनीय ब्राह्मण २.२१८ में जमदग्नि की कामना का उल्लेख है जो अपनी प्रजा के भूमा होने की कामना करता है। भूमा का अर्थ है कि इस जगत के तत्त्वों से आनन्द की अनुभूति करना, मधु विद्या। जमदग्नि की पत्नी का नाम रेणुका है। रेणु शब्द को रिणाति-प्रक्षेपणे या ऋण की ओर ले जाने वाले के रूप में समझा जा सकता है। पुराणों में राजा कार्त्तवीर्य अर्जुन मृगया करते समय जमदग्नि ऋषि के आश्रम में पहुंच जाता है और वहां वह जमदग्नि की कामधेनु गौ को प्राप्त करना चाहता है। तत्पश्चात् जमदग्नि-पुत्र परशुराम कार्त्तवीर्य अर्जुन के वध के लिए शिव से परशु आदि अस्त्रों की प्राप्ति करते हैं। कार्त्तवीर्य अर्जुन के पास दो प्रकार के कवच हैं शैव व वैष्णव, जिनके कारण उसका वध संभव नहीं है। उसका वध तभी संभव हो सका जब वह कवच उससे मांग लिए गए। यह इंगित करता है कि वैदिक साहित्य में जिन पार्श्वों को श्वेत व कृष्ण या सौर्य व यम कहा जा रहा है, उन्हें ही पौराणिक साहित्य में शिव व विष्णु के कवचों की संज्ञा दी गई है। कथा में कार्त्तवीर्य अर्जुन का जमदग्नि के आश्रम में पहुंचना यह इंगित करता है कि कि उसने अग्नि के यमन में प्रवीणता प्राप्त कर ली है। रामायण की कथा में परशुराम को शिव व वैष्णव धनुषों का अधिकारी कहा गया है । यह उल्लेखनीय है कि परशुराम की कथाओं में कवच को विशेष महत्त्व दिया गया है। क्षत्रिय वध के पश्चात् परशुराम को पुष्कर में तप करने का निर्देश दिया जाता है। शतपथ ब्राह्मण ७.४.१.१३ के अनुसार वृत्र वध होने पर, पापों का नाश होने पर हमारे परितः स्थित आपः एक रक्षक कवच का, पुर का निर्माण करते हैं। ब्रह्माण्ड पुराण की कथा में परशुराम जब मध्य पुष्कर में सिद्धि प्राप्ति हेतु तप करते हैं तो एक मृग व मृगी आकर उनके तप की सिद्धि न होने का कारण बताते हैं कि जब तक परशुराम कनिष्ठ पुष्कर में जाकर अगस्त्य से कृष्ण प्रेमामृत स्तोत्र प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक सिद्धि नहीं हो सकती। इस कथा में मृग ज्ञान का, विद्या का प्रतीक प्रतीत होता है क्योंकि मृग को परशुराम को देखकर अपने पूर्वजन्म की स्मृति का उदय हुआ है। कहा जा सकता है कि परशुराम को स्वयं ही अपने पूर्व संस्कारों का ज्ञान हुआ है। यह मध्य पुष्कर की स्थिति है। साथ ही साथ यहां उत्तम, मध्यम व अधम प्रकार के भक्तों का भी उल्लेख किया गया है। रन्तिदेव आदि उत्तम भक्ति के उदाहरण हैं जबकि वसिष्ट, मनु आदि मध्यम प्रकार की भक्ति के। लेकिन सिद्धि के लिए इतना पर्याप्त नहीं है। सिद्धि तभी प्राप्त होगी जब उसमें प्रेम का समावेश होगा। और वह कनिष्ठ पुष्कर में अगस्त्य से ही प्राप्त हो सकता है। भागवत पुराण ११.२.४६ में मध्यम प्रकार के भक्त के लक्षणों को निम्नलिखित श्लोक के आधार पर समझा जा सकता है ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च। प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः॥ इस श्लोक में मैत्री और कृपा शब्द आए हैं। मैत्री का देवता मित्र है जबकि कृपा का वरुण। कृपा को इस प्रकार समझा जा सकता है कि ईश्वर जब कृपा करता है तब वह इसका ध्यान नहीं रखता कि तात्कालिक रूप में इससे उसके भक्त को कष्ट होगा या नहीं। कोई कष्टदायक घटना भी दीर्घकालिक रूप में उसके लिए लाभदायक हो सकती है। ऐसा अनुमान है कि पौराणिक साहित्य में कृपा का समावेश विभिन्न कवचों के रूप में किया गया है क्योंकि कवच निर्माण में देह के विभिन्न अङ्गों के लिए विभिन्न नामों से देवताओं की कृपा का आह्वान किया जाता है। प्रथम लेखन ३०.७.२००६ ई. |