पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (From Paksha to Pitara ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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पितर सांवत्सरिकश्राद्धः वार्षिकश्राद्धे (मृत्युतिथौ) कानि कृत्यानि करणीयानि सन्ति। किं अस्यां तिथौ अग्निहोत्रमुचितं अस्ति। शतपथब्राह्मणे २.४.२.२ कथनमस्ति यत् देवानां ज्योतिः सूर्यः अस्ति, मनुष्याणां अग्निः एवं पितॄणां चन्द्रमा। मनुष्याणां या ज्योतिः अग्निः अस्ति, तस्याः विकासं पृथिवीतत्त्वतः भवति। अस्याः ज्योतेः अनुभवं जाठराग्निरूपेण भवति। सर्वे प्राणिनः अस्याः अनुभवं कुर्वन्ति। पितॄणां या ज्योतिः चन्द्रमा अस्ति, तस्याः विकसनं अपसः भवति, अप् तत्त्वतः। अपसः एकमर्थं जलं भवति, अन्यार्थं पुण्याः भवति। अयं संकेतमस्ति यत् चन्द्रमसः कार्यं पापपुण्येभ्यः पुण्यानां संचयं अस्ति। संवत्सरस्य निर्माणं सूर्य, पृथिवी एवं चन्द्रमसः गतीनां व्यूहनेन भवति। (लेखन- फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी, विक्रम संवत् २०७५)
टिप्पणी : अन्यतरोऽनड्वान्युक्तः स्यादन्यतरो विमुक्तोऽथ राजानमुपावहरेयुः। यदुभयोर्विमुक्तयोरुपावहरेयुः पितृदेवत्यं राजानं कुर्युः। यद्युक्तयोरयोगक्षेमः प्रजा विन्देत्ताः प्रजाः परिप्लवेरन्। योऽनड्वान् विमुक्तस्तच्छालासदां प्रजानां रूपं यो युक्तस्तच्च क्रियाणां, ते ये युक्तेऽन्ये विमुक्तेऽन्य उपावहरन्त्युभावेव ते क्षेमयोगौ कल्पयन्ति। - ऐ.ब्रा. 1.14 ऐतरेय ब्राह्मण का उपरोक्त कथन पितरों को समझने की कुंजियों में से एक है। उपरोक्त कथन सोमयाग के आरम्भ में सोमक्रय के पश्चात् सोमलता को वेदी तक लाने के संदर्भ में है। सोम को दो बैलों/अनड्वाहौ से जुती गाडी में ढोकर लाया जाता है। लाने के पश्चात् प्रश्न है कि सोम को शकट से उतारने से पहले एक बलीवर्द को शकट से खोलकर अलग किया जाए या दोनों को अलग किया जाए या दोनों को ही जुते रहने दिया जाए। कहा जा रहा है कि यदि दोनों को शकट से खोलकर अलग कर दिया जाए तो तब सोम राजा पितृदेवत्य हो जाएगा। यदि दोनों बलीवर्द जुडे रहें तो प्रजा का अयोगक्षेम होगा। अतः एक बलीवर्द को खोल देना चाहिए और एक बलीवर्द जुडा रहना चाहिए। जो बलीवर्द खोलकर अलग कर दिया गया है, वह शालासदः में स्थित प्रजा का रूप है। जो बलीवर्द जुडा हुआ है, वह क्रियाओं का रूप है। इस प्रकार योगक्षेम का कल्पन किया जाता है। यह कथन संकेत देता है कि पितरों की स्थिति में क्रियाओं का लोप हो जाएगा। वह जीवन क्रियात्मक नहीं होगा। वह बीज जैसी स्थिति होगी। इससे आगे मनुष्य की स्थिति होगी जहां क्रिया का समावेश होगा। ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक कथन है कि मनुष्य जागरित हैं, पितर सुप्त हैं। इन कथनों से संकेत मिलता है कि पितर अचेतन अथवा अर्धचेतन मन में स्थित होकर अपना कार्य करते हैं। आचार्य रजनीश ने अपने व्याख्यानों में विपश्यना ध्यान को समझाने के संदर्भ में इस तथ्य पर बहुत बल दिया है कि अपने दैनिक जीवन में हम जो कार्य अचेतन मन द्वारा कर रहे हैं, उस कार्य को हमें अपने चेतन मन द्वारा करना सीखना है। उदाहरण के लिए, चलने की क्रिया है। चलने के लिए हमें अपने मन से कुछ नहीं सोचना पडता। एक कम्प्यूटर के प्रोग्राम की तरह हमारे अन्दर एक प्रोग्राम भर गया है और हम अनजाने ही चलते रहते हैं। लेकिन विपश्यना ध्यान के संदर्भ में निर्देश दिया जाता है कि जो क्रियाएं हमारे अचेतन मन द्वारा संचालित हो रही हैं, उन्हें हम अपने चेतन मन से संचालित करना सीखें। इसका लाभ यह होगा कि अचेतन मन से क्रिया का बोझ हट जाएगा और वह ऊपर की ओर प्रगति करने लगेगा। लगता है कि यही तथ्य पितरों को समझने की कुंजी है कि पितरों के ऊपर से क्रिया का बोझ समाप्त कर दिया जाए और उनको ऊर्ध्वमुखी विकास का अवसर दिया जाए। पितरों को समझने की दूसरी कुंजी यह है कि पितरों हेतु जो यवपिण्ड बनाया जाता है, उसको बनाने के लिए चूर्ण/आटे से तुष को, भूसी को अलग नहीं किया जाता। और वह प्रायः होता भी है अधपिसा। तुष का देवता वरुण है। तुष का अभिप्राय है पापों की बंधी हुई स्थिति। अतः पितरों को ऐसी स्थिति कहा जा सकता है जहां पाप नष्ट नहीं हुए हैं, अपितु जैसी भी हमारी वर्तमान में स्थिति है, उसी में अधिक जीवन का समावेश करना है, अधिकतम दक्षता लानी है। शतपथ ब्राह्मण २.४.२.२४ व तैत्तिरीय संहिता ३.२.५.५ में पितरों को ६ ऋतुओं से सम्बद्ध किया गया है और कहा गया है कि नमो व: पितरो रसाय(वसन्ताय ), नमो व: पितरो शोषाय(ग्रीष्माय), नमो व: पितरो जीवाय( वर्षाय), नमो व: पितरो स्वधायै( शरदे ), नमो व: पितरो घोराय( हेमन्ताय), नमो व: पितरो मन्यवे( शिशिराय ) । पितर व बर्हि -- बर्हि को समझने के लिए अथर्ववेद के निम्नलिखित श्लोक को कुंजी के रूप में लिया जा सकता है – *वेदि॑ष्टे॒ चर्म॑ भवतु ब॒र्हिर्लोमा॑नि॒ यानि॑ ते। - अथर्ववेद १०.९.२ पुराणों के अनुसार यज्ञवराह के जो लोम पृथिवी पर गिरे, उनसे कुश, कुशा आदि उत्पन्न हुए और कुश आदि बर्हि के रूप हैं। यह संकेत करता है कि हमें कोई भी अनुभूति हो, कोई भी कांटा चुभे, दुःख हो, उसका विस्तार होना चाहिए, वह सारे शरीर में फैल जाना चाहिए। वही बर्हि कहलाएगा। अथर्ववेद ८.१.१६ में जिह्वा को बर्हि कहा गया है जिसको मृत्यु से बचाना है। इसका अर्थ होगा कि जिह्वा जिस स्वाद का अनुभव करती है, उस स्वाद की अनुभूति सारे शरीर में होनी चाहिए। तभी वह बर्हि कहलाने योग्य बनेगी। देव और पितर, दोनों ही बर्हि पर विराजमान होते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में उल्लेख है कि पितरों की बर्हि उपमूल सहित होती है जबकि देवों की मूलरहित(मैत्रायणी संहिता १.१०.१७)। यह मूल कौन सा होता है, यह अन्वेषणीय है। हो सकता है कि जब किसी अनुभूति ने बर्हि का रूप ग्रहण न किया हो, वह उपमूल हो। यम प्रस्तर पर विराजमान होता है(इ॒मं य॑म प्रस्त॒रमा हि रोह – अथर्ववेद १८.१.६०), जबकि पितर बर्हि पर। यम क्षत्र है, पितर प्रजा। प्रथम लेखन : ८-३-२०१३ई.(फाल्गुन कृष्ण एकादशी, विक्रम संवत् २०६९) अग्निष्वात्ताः पितृगणाः प्राचीं रक्षन्तु मे दिशम् । तथा बर्हिषदः पान्तु याम्यां मे पितरः सदा । प्रतीचीमाज्यपास्तद्वदुदीचीमपि सोमपाः ॥ गरुड १,८९.४१ ॥ टिप्पणी : पितरों के एक रूप में बर्हिषद पितरों का उल्लेख यह संकेत करता है कि हमारे जो अनुभव बर्हि नहीं बने हैं, बृहत् नहीं बने हैं, वह पितर रूप, पालन करने वाले नहीं हो सकते। उदाहरण के लिए, हमने किसी स्वाद का अनुभव किया। जब तक वह स्वाद हमें अभिभूत न कर दे, हमारे अन्दर रोमांच न उत्पन्न कर दे, तब तक उसे बर्हि-सद, बृहत् के ऊपर विराजमान नहीं कहा जा सकता। शिव पुराण आदि में उल्लेख आता है कि स्वधा व बर्हिषद पितरों की मानसी कन्या धन्या सनकादि के शापवश सीरध्वज जनक की पत्नी बनी जिनके द्वारा हल से भूमि का कर्षण और उससे सीता की उत्पत्ति की कथा प्रसिद्ध है। सीरध्वज – हल जिसका ध्वज है। हल द्वारा अपने शरीर रूपी पृथिवी का कर्षण करना यह संकेत करता है कि यह बर्हि की स्थिति से नीचे की स्थिति है। अथवा हल भी बर्हि का एक विशेष रूप है जिसके द्वारा सारे शरीर का कर्षण किया जा सकता है। तीन प्रकार की स्वधाओं को समझने के संदर्भ में तीन प्रकार के पितरों की प्रकृतियों का उल्लेख करना भी उचित होगा । शतपथ ब्राह्मण २.६.१.५ का कथन है कि सोम प्रकार के पितरों के लिए षट्कपाल पुरोडाश अर्पित करे क्योंकि ऋतुएं ६ हो सकती हैं और ऋतुएं पितर हैं । बर्हिषद् पितरों के लिए अन्वाहार्यपचन अग्नि/दक्षिणाग्नि पर धानों का संस्कार करते हैं । आधे धान पिसे हुए होते हैं, आधे बिना पिसे हुए ( इस रहस्य का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सोमयाग में आग्नीध्र नामक ऋत्विज की वेदी आधी बाहर होती है, आधी अन्दर । वह अन्तर्मुखी भी हो सकता है, बहिर्मुखी भी )। अग्निष्वात् पितरों के लिए निवान्या/नष्टवत्सा गौ का एकशलाका द्वारा मथित दुग्ध अर्पित किया जाता है । जिनकी सोम द्वारा इज्या की जाती है, वह सोमप पितर हैं, जो पक्व दत्त द्वारा लोक की जय करते हैं, वह बर्हिषद् पितर हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.३.६.४ से प्रतीत होता है कि बर्हिषद् पितरों के लिए ही स्वधा ऊर्क् में रूपान्तरित हो सकती है । और जो अन्य हैं, जिनका केवल अग्नि ही दाह करके स्वाद लेती है, वे अग्निष्वात्त पितर हैं । प्रथम लेखन : १२-४-२०१३ई.(चैत्र शुक्ल द्वितीया, विक्रम संवत् २०७०)
संदर्भ १,०२०.०४ युवाना पितरा पुनः सत्यमन्त्रा ऋजूयवः । १,०२०.०४ ऋभवो विष्ट्यक्रत ॥ १,०२४.०१ कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम । १,०२४.०१ को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च ॥ १,०२४.०२ अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम । १,०२४.०२ स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च ॥ *प्र वो महे महि नमो भरध्वमाङ्गूष्यं शवसानाय साम । येना नः पूर्वे पितरः पदज्ञा अर्चन्तो अङ्गिरसो गा अविन्दन् ॥- ऋ. १,०६२.०२ १,०७१.०२ वीळु चिद्दृळ्हा पितरो न उक्थैरद्रिं रुजन्नङ्गिरसो रवेण । १,०७१.०२ चक्रुर्दिवो बृहतो गातुमस्मे अहः स्वर्विविदुः केतुमुस्राः ॥ *रयिर्न यः पितृवित्तो वयोधाः सुप्रणीतिश्चिकितुषो न शासुः । स्योनशीरतिथिर्न प्रीणानो होतेव सद्म विधतो वि तारीत् ॥- ऋ. १,०७३.०१ *अर्वद्भिरग्ने अर्वतो नृभिर्नॄन्वीरैर्वीरान्वनुयामा त्वोताः । ईशानासः पितृवित्तस्य रायो वि सूरयः शतहिमा नो अश्युः ॥- ऋ. १,०७३.०९ १,०८९.०९ शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम् । १,०८९.०९ पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ॥ १,०९१.०१ त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठमनु नेषि पन्थाम् । १,०९१.०१ तव प्रणीती पितरो न इन्दो देवेषु रत्नमभजन्त धीराः ॥ *सोमो धेनुं सोमो अर्वन्तमाशुं सोमो वीरं कर्मण्यं ददाति । सादन्यं विदथ्यं सभेयं पितृश्रवणं यो ददाशदस्मै ॥- ऋ. १,०९१.२० *अवन्तु नः पितरः सुप्रवाचना उत देवी देवपुत्रे ऋतावृधा । रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन ॥- ऋ. १,१०६.०३ *मा च्छेद्म रश्मींरिति नाधमानाः पितॄणां शक्तीरनुयच्छमानाः । इन्द्राग्निभ्यां कं वृषणो मदन्ति ता ह्यद्री धिषणाया उपस्थे ॥- ऋ. १,१०९.०३ १,१०९.०७ आ भरतं शिक्षतं वज्रबाहू अस्मां इन्द्राग्नी अवतं शचीभिः । १,१०९.०७ इमे नु ते रश्मयः सूर्यस्य येभिः सपित्वं पितरो न आसन् ॥ १,११०.०८ निश्चर्मण ऋभवो गामपिंशत सं वत्सेनासृजता मातरं पुनः । १,११०.०८ सौधन्वनासः स्वपस्यया नरो जिव्री युवाना पितराकृणोतन ॥ १,१११.०१ तक्षन्रथं सुवृतं विद्मनापसस्तक्षन्हरी इन्द्रवाहा वृषण्वसू । १,१११.०१ तक्षन्पितृभ्यामृभवो युवद्वयस्तक्षन्वत्साय मातरं सचाभुवम् ॥ १,११४.०७ मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम् । १,११४.०७ मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः ॥ १,११४.०९ उप ते स्तोमान्पशुपा इवाकरं रास्वा पितर्मरुतां सुम्नमस्मे । १,११४.०९ भद्रा हि ते सुमतिर्मृळयत्तमाथा वयमव इत्ते वृणीमहे ॥ *युवं भुज्युं भुरमाणं विभिर्गतं स्वयुक्तिभिर्निवहन्ता पितृभ्य आ । यासिष्टं वर्तिर्वृषणा विजेन्यं दिवोदासाय महि चेति वामवः ॥- ऋ. १,११९.०४ १,१२१.०५ तुभ्यं पयो यत्पितरावनीतां राधः सुरेतस्तुरणे भुरण्यू । १,१२१.०५ शुचि यत्ते रेक्ण आयजन्त सबर्दुघायाः पय उस्रियायाः ॥ १,१३०.०१ हवामहे त्वा वयं प्रयस्वन्तः सुते सचा । १,१३०.०१ पुत्रासो न पितरं वाजसातये मंहिष्ठं वाजसातये ॥ १,१५९.०२ उत मन्ये पितुरद्रुहो मनो मातुर्महि स्वतवस्तद्धवीमभिः । १,१५९.०२ सुरेतसा पितरा भूम चक्रतुरुरु प्रजाया अमृतं वरीमभिः ॥ १,१६१.१० श्रोणामेक उदकं गामवाजति मांसमेकः पिंशति सूनयाभृतम् । १,१६१.१० आ निम्रुचः शकृदेको अपाभरत्किं स्वित्पुत्रेभ्यः पितरा उपावतुः ॥ १,१६१.१२ सम्मील्य यद्भुवना पर्यसर्पत क्व स्वित्तात्या पितरा व आसतुः । १,१६१.१२ अशपत यः करस्नं व आददे यः प्राब्रवीत्प्रो तस्मा अब्रवीतन ॥ १,१६३.१३ उप प्रागात्परमं यत्सधस्थमर्वाँ अच्छा पितरं मातरं च । १,१६३.१३ अद्या देवाञ्जुष्टतमो हि गम्या अथा शास्ते दाशुषे वार्याणि ॥ *माता पितरमृत आ बभाज धीत्यग्रे मनसा सं हि जग्मे । सा बीभत्सुर्गर्भरसा निविद्धा नमस्वन्त इदुपवाकमीयुः ॥- ऋ. १,१६४.०८ १,१६४.१२ पञ्चपादं पितरं द्वादशाकृतिं दिव आहुः परे अर्धे पुरीषिणम् । १,१६४.१२ अथेमे अन्य उपरे विचक्षणं सप्तचक्रे षळर आहुरर्पितम् ॥ १,१६४.१८ अवः परेण पितरं यो अस्यानुवेद पर एनावरेण । १,१६४.१८ कवीयमानः क इह प्र वोचद्देवं मनः कुतो अधि प्रजातम् ॥ १,१६४.२२ यस्मिन्वृक्षे मध्वदः सुपर्णा निविशन्ते सुवते चाधि विश्वे । १,१६४.२२ तस्येदाहुः पिप्पलं स्वाद्वग्रे तन्नोन्नशद्यः पितरं न वेद ॥ १,१८५.११ इदं द्यावापृथिवी सत्यमस्तु पितर्मातर्यदिहोपब्रुवे वाम् । १,१८५.११ भूतं देवानामवमे अवोभिर्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥
*त्वामग्ने पितरमिष्टिभिर्नरस्त्वां भ्रात्राय शम्या तनूरुचम् । त्वं पुत्रो भवसि यस्तेऽविधत्त्वं सखा सुशेवः पास्याधृषः ॥- ऋ. २,००१.०९ *होताजनिष्ट चेतनः पिता पितृभ्य ऊतये । प्रयक्षञ्जेन्यं वसु शकेम वाजिनो यमम् ॥- ऋ. २,००५.०१ *स इज्जनेन स विशा स जन्मना स पुत्रैर्वाजं भरते धना नृभिः । देवानां यः पितरमाविवासति श्रद्धामना हविषा ब्रह्मणस्पतिम् ॥- ऋ. २,०२६.०३ २,०३३.०१ आ ते पितर्मरुतां सुम्नमेतु मा नः सूर्यस्य संदृशो युयोथाः । २,०३३.०१ अभि नो वीरो अर्वति क्षमेत प्र जायेमहि रुद्र प्रजाभिः ॥ २,०३३.१२ कुमारश्चित्पितरं वन्दमानं प्रति नानाम रुद्रोपयन्तम् । २,०३३.१२ भूरेर्दातारं सत्पतिं गृणीषे स्तुतस्त्वं भेषजा रास्यस्मे ॥ ३,००३.११ वैश्वानरस्य दंसनाभ्यो बृहदरिणादेकः स्वपस्यया कविः । ३,००३.११ उभा पितरा महयन्नजायताग्निर्द्यावापृथिवी भूरिरेतसा ॥ ३,००७.०१ प्र य आरुः शितिपृष्ठस्य धासेरा मातरा विविशुः सप्त वाणीः । ३,००७.०१ परिक्षिता पितरा सं चरेते प्र सर्स्राते दीर्घमायुः प्रयक्षे ॥ *उतो पितृभ्यां प्रविदानु घोषं महो महद्भ्यामनयन्त शूषम् । उक्षा ह यत्र परि धानमक्तोरनु स्वं धाम जरितुर्ववक्ष ॥- ऋ. ३,००७.०६ ३,०१८.०१ भवा नो अग्ने सुमना उपेतौ सखेव सख्ये पितरेव साधुः । ३,०१८.०१ पुरुद्रुहो हि क्षितयो जनानां प्रति प्रतीचीर्दहतादरातीः ॥ ३,०२६.०९ शतधारमुत्समक्षीयमाणं विपश्चितं पितरं वक्त्वानाम् । ३,०२६.०९ मेळिं मदन्तं पित्रोरुपस्थे तं रोदसी पिपृतं सत्यवाचम् ॥ ३,०२७.०९ धिया चक्रे वरेण्यो भूतानां गर्भमा दधे । ३,०२७.०९ दक्षस्य पितरं तना ॥ ३,०३९.०४ नकिरेषां निन्दिता मर्त्येषु ये अस्माकं पितरो गोषु योधाः । ३,०३९.०४ इन्द्र एषां दृंहिता माहिनावानुद्गोत्राणि ससृजे दंसनावान् ॥ ३,०५४.१६ नासत्या मे पितरा बन्धुपृच्छा सजात्यमश्विनोश्चारु नाम । ३,०५४.१६ युवं हि स्थो रयिदौ नो रयीणां दात्रं रक्षेथे अकवैरदब्धा ॥ *मो षू णो अत्र जुहुरन्त देवा मा पूर्वे अग्ने पितरः पदज्ञाः । पुराण्योः सद्मनोः केतुरन्तर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥- ऋ. ३,०५५.०२ ३,०५८.०२ सुयुग्वहन्ति प्रति वामृतेनोर्ध्वा भवन्ति पितरेव मेधाः । ३,०५८.०२ जरेथामस्मद्वि पणेर्मनीषां युवोरवश्चकृमा यातमर्वाक् ॥ ४,००१.१३ अस्माकमत्र पितरो मनुष्या अभि प्र सेदुर्ऋतमाशुषाणाः । ४,००१.१३ अश्मव्रजाः सुदुघा वव्रे अन्तरुदुस्रा आजन्नुषसो हुवानाः ॥ *अधा यथा नः पितरः परासः प्रत्नासो अग्न ऋतमाशुषाणाः । शुचीदयन्दीधितिमुक्थशासः क्षामा भिन्दन्तो अरुणीरप व्रन् ॥- ऋ. ४,००२.१६ *त्राता नो बोधि ददृशान आपिरभिख्याता मर्डिता सोम्यानाम् । सखा पिता पितृतमः पितॄणां कर्तेमु लोकमुशते वयोधाः ॥- ऋ. ४,०१७.१७ ४,०१८.१२ कस्ते मातरं विधवामचक्रच्छयुं कस्त्वामजिघांसच्चरन्तम् । ४,०१८.१२ कस्ते देवो अधि मार्डीक आसीद्यत्प्राक्षिणाः पितरं पादगृह्य ॥ *यदारमक्रन्नृभवः पितृभ्यां परिविष्टी वेषणा दंसनाभिः । आदिद्देवानामुप सख्यमायन्धीरासः पुष्टिमवहन्मनायै ॥- ऋ. ४,०३३.०२ ४,०३३.०३ पुनर्ये चक्रुः पितरा युवाना सना यूपेव जरणा शयाना । ४,०३३.०३ ते वाजो विभ्वां ऋभुरिन्द्रवन्तो मधुप्सरसो नोऽवन्तु यज्ञम् ॥ ४,०३४.०९ ये अश्विना ये पितरा य ऊती धेनुं ततक्षुर्ऋभवो ये अश्वा । ४,०३४.०९ ये अंसत्रा य ऋधग्रोदसी ये विभ्वो नरः स्वपत्यानि चक्रुः ॥ ४,०३५.०५ शच्याकर्त पितरा युवाना शच्याकर्त चमसं देवपानम् । ४,०३५.०५ शच्या हरी धनुतरावतष्टेन्द्रवाहावृभवो वाजरत्नाः ॥ ४,०३६.०३ तद्वो वाजा ऋभवः सुप्रवाचनं देवेषु विभ्वो अभवन्महित्वनम् । ४,०३६.०३ जिव्री यत्सन्ता पितरा सनाजुरा पुनर्युवाना चरथाय तक्षथ ॥ ४,०४१.०७ युवामिद्ध्यवसे पूर्व्याय परि प्रभूती गविषः स्वापी । ४,०४१.०७ वृणीमहे सख्याय प्रियाय शूरा मंहिष्ठा पितरेव शम्भू ॥ *अस्माकमत्र पितरस्त आसन्सप्त ऋषयो दौर्गहे बध्यमाने । त आयजन्त त्रसदस्युमस्या इन्द्रं न वृत्रतुरमर्धदेवम् ॥- ऋ. ४,०४२.०८ ५,००३.०९ अव स्पृधि पितरं योधि विद्वान्पुत्रो यस्ते सहसः सून ऊहे । ५,००३.०९ कदा चिकित्वो अभि चक्षसे नोऽग्ने कदां ऋतचिद्यातयासे ॥ ५,०३४.०४ यस्यावधीत्पितरं यस्य मातरं यस्य शक्रो भ्रातरं नात ईषते । ५,०३४.०४ वेतीद्वस्य प्रयता यतङ्करो न किल्बिषादीषते वस्व आकरः ॥
*प्रयुञ्जती दिव एति ब्रुवाणा मही माता दुहितुर्बोधयन्ती । आविवासन्ती युवतिर्मनीषा पितृभ्य आ सदने जोहुवाना ॥- ऋ. ५,०४७.०१ *प्र ये मे बन्ध्वेषे गां वोचन्त सूरयः पृश्निं वोचन्त मातरम् । अधा पितरमिष्मिणं रुद्रं वोचन्त शिक्वसः ॥- ऋ. ५,०५२.१६ *स तु श्रुधीन्द्र नूतनस्य ब्रह्मण्यतो वीर कारुधायः । त्वं ह्यापिः प्रदिवि पितॄणां शश्वद्बभूथ सुहव एष्टौ ॥- ऋ. ६,०२१.०८ ६,०२२.०२ तमु नः पूर्वे पितरो नवग्वाः सप्त विप्रासो अभि वाजयन्तः । ६,०२२.०२ नक्षद्दाभं ततुरिं पर्वतेष्ठामद्रोघवाचं मतिभिः शविष्ठम् ॥ *यत्र शूरासस्तन्वो वितन्वते प्रिया शर्म पितॄणाम् । अध स्मा यच्छ तन्वे तने च छर्दिरचित्तं यावय द्वेषः ॥- ऋ. ६,०४६.१२ ६,०४९.१० भुवनस्य पितरं गीर्भिराभी रुद्रं दिवा वर्धया रुद्रमक्तौ । ६,०४९.१० बृहन्तमृष्वमजरं सुषुम्नमृधग्घुवेम कविनेषितासः ॥ *सुज्योतिषः सूर्य दक्षपितॄननागास्त्वे सुमहो वीहि देवान् । द्विजन्मानो य ऋतसापः सत्याः स्वर्वन्तो यजता अग्निजिह्वाः ॥- ऋ. ६,०५०.०२ ६,०५१.०५ द्यौष्पितः पृथिवि मातरध्रुगग्ने भ्रातर्वसवो मृळता नः । ६,०५१.०५ विश्व आदित्या अदिते सजोषा अस्मभ्यं शर्म बहुलं वि यन्त ॥ ६,०५२.०४ अवन्तु मामुषसो जायमाना अवन्तु मा सिन्धवः पिन्वमानाः । ६,०५२.०४ अवन्तु मा पर्वतासो ध्रुवासोऽवन्तु मा पितरो देवहूतौ ॥ ६,०५९.०१ प्र नु वोचा सुतेषु वां वीर्या यानि चक्रथुः । ६,०५९.०१ हतासो वां पितरो देवशत्रव इन्द्राग्नी जीवथो युवम् ॥ *ब्राह्मणासः पितरः सोम्यासः शिवे नो द्यावापृथिवी अनेहसा । पूषा नः पातु दुरितादृतावृधो रक्षा माकिर्नो अघशंस ईशत ॥- ऋ. ६,०७५.१० ७,०१८.०१ त्वे ह यत्पितरश्चिन्न इन्द्र विश्वा वामा जरितारो असन्वन् । ७,०१८.०१ त्वे गावः सुदुघास्त्वे ह्यश्वास्त्वं वसु देवयते वनिष्ठः ॥ ७,०१८.२५ इमं नरो मरुतः सश्चतानु दिवोदासं न पितरं सुदासः । ७,०१८.२५ अविष्टना पैजवनस्य केतं दूणाशं क्षत्रमजरं दुवोयु ॥ ७,०२६.०२ उक्थउक्थे सोम इन्द्रं ममाद नीथेनीथे मघवानं सुतासः । ७,०२६.०२ यदीं सबाधः पितरं न पुत्राः समानदक्षा अवसे हवन्ते ॥ ७,०३२.०३ रायस्कामो वज्रहस्तं सुदक्षिणं पुत्रो न पितरं हुवे ॥ *जुष्टी नरो ब्रह्मणा वः पितॄणामक्षमव्ययं न किला रिषाथ । यच्छक्वरीषु बृहता रवेणेन्द्रे शुष्ममदधाता वसिष्ठाः ॥- ऋ. ७,०३३.०४ ७,०३५.१२ शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः । ७,०३५.१२ शं न ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु ॥ ७,०५३.०२ प्र पूर्वजे पितरा नव्यसीभिर्गीर्भिः कृणुध्वं सदने ऋतस्य । ७,०५३.०२ आ नो द्यावापृथिवी दैव्येन जनेन यातं महि वां वरूथम् ॥ ७,०६७.०१ प्रति वां रथं नृपती जरध्यै हविष्मता मनसा यज्ञियेन । ७,०६७.०१ यो वां दूतो न धिष्ण्यावजीगरच्छा सूनुर्न पितरा विवक्मि ॥ ७,०७६.०४ त इद्देवानां सधमाद आसन्नृतावानः कवयः पूर्व्यासः । ७,०७६.०४ गूळ्हं ज्योतिः पितरो अन्वविन्दन्सत्यमन्त्रा अजनयन्नुषासम् ॥ ७,१०३.०३ यदीमेनां उशतो अभ्यवर्षीत्तृष्यावतः प्रावृष्यागतायाम् । ७,१०३.०३ अख्खलीकृत्या पितरं न पुत्रो अन्यो अन्यमुप वदन्तमेति ॥ *एवेन्द्राग्निभ्यां पितृवन्नवीयो मन्धातृवदङ्गिरस्वदवाचि । त्रिधातुना शर्मणा पातमस्मान्वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥- ऋ. ८,०४०.१२ *तमू षु समना गिरा पितॄणां च मन्मभिः । नाभाकस्य प्रशस्तिभिर्यः सिन्धूनामुपोदये सप्तस्वसा स मध्यमो नभन्तामन्यके समे ॥- ऋ. ८,०४१.०२ ८,०४८.१२ यो न इन्दुः पितरो हृत्सु पीतोऽमर्त्यो मर्त्यां आविवेश । ८,०४८.१२ तस्मै सोमाय हविषा विधेम मृळीके अस्य सुमतौ स्याम ॥ *त्वं सोम पितृभिः संविदानोऽनु द्यावापृथिवी आ ततन्थ । तस्मै त इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥- ऋ. ८,०४८.१३ *तद्दधाना अवस्यवो युष्माभिर्दक्षपितरः । स्याम मरुत्वतो वृधे ॥- ऋ. ८,०६३.१० ९,०६९.०८ आ नः पवस्व वसुमद्धिरण्यवदश्वावद्गोमद्यवमत्सुवीर्यम् । ९,०६९.०८ यूयं हि सोम पितरो मम स्थन दिवो मूर्धानः प्रस्थिता वयस्कृतः ॥ ९,०८३.०३ अरूरुचदुषसः पृश्निरग्रिय उक्षा बिभर्ति भुवनानि वाजयुः । ९,०८३.०३ मायाविनो ममिरे अस्य मायया नृचक्षसः पितरो गर्भमा दधुः ॥ *द्रापिं वसानो यजतो दिविस्पृशमन्तरिक्षप्रा भुवनेष्वर्पितः । स्वर्जज्ञानो नभसाभ्यक्रमीत्प्रत्नमस्य पितरमा विवासति ॥- ऋ. ९,०८६.१४ *त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः । वन्वन्नवातः परिधींरपोर्णु वीरेभिरश्वैर्मघवा भवा नः ॥- ऋ. ९,०९६.११ *स वर्धिता वर्धनः पूयमानः सोमो मीढ्वां अभि नो ज्योतिषावीत् । येना नः पूर्वे पितरः पदज्ञाः स्वर्विदो अभि गा अद्रिमुष्णन् ॥- ऋ. ९,०९७.३९ *अग्निं मन्ये पितरमग्निमापिमग्निं भ्रातरं सदमित्सखायम् । अग्नेरनीकं बृहतः सपर्यं दिवि शुक्रं यजतं सूर्यस्य ॥- ऋ. १०,००७.०३ १०,०११.०६ उदीरय पितरा जार आ भगमियक्षति हर्यतो हृत्त इष्यति । १०,०११.०६ विवक्ति वह्निः स्वपस्यते मखस्तविष्यते असुरो वेपते मती ॥ १०,०१२.०४ अर्चामि वां वर्धायापो घृतस्नू द्यावाभूमी शृणुतं रोदसी मे । १०,०१२.०४ अहा यद्द्यावोऽसुनीतिमयन्मध्वा नो अत्र पितरा शिशीताम् ॥
*यमो नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ । यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुरेना जज्ञानाः पथ्या अनु स्वाः ॥- ऋ. १०,०१४.०२ *इमं यम प्रस्तरमा हि सीदाङ्गिरोभिः पितृभिः संविदानः । आ त्वा मन्त्राः कविशस्ता वहन्त्वेना राजन्हविषा मादयस्व ॥- ऋ. १०,०१४.०४ १०,०१४.०६ अङ्गिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वाणो भृगवः सोम्यासः । १०,०१४.०६ तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ॥ *प्रेहि प्रेहि पथिभिः पूर्व्येभिर्यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुः । उभा राजाना स्वधया मदन्ता यमं पश्यासि वरुणं च देवम् ॥- ऋ. १०,०१४.०७ *सं गच्छस्व पितृभिः सं यमेनेष्टापूर्तेन परमे व्योमन् । हित्वायावद्यं पुनरस्तमेहि सं गच्छस्व तन्वा सुवर्चाः ॥- ऋ. १०,०१४.०८ १०,०१४.०९ अपेत वीत वि च सर्पतातोऽस्मा एतं पितरो लोकमक्रन् । १०,०१४.०९ अहोभिरद्भिरक्तुभिर्व्यक्तं यमो ददात्यवसानमस्मै ॥ *अति द्रव सारमेयौ श्वानौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा । अथा पितॄन्सुविदत्रां उपेहि यमेन ये सधमादं मदन्ति ॥- ऋ. १०,०१४.१० *उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः । असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ॥- ऋ. १०,०१५.०१ *इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः । ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवृजनासु विक्षु ॥- ऋ. १०,०१५.०२ *आहं पितॄन्सुविदत्रां अवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः । बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः ॥- ऋ. १०,०१५.०३ *बर्हिषदः पितर ऊत्यर्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम् । त आ गतावसा शन्तमेनाथा नः शं योररपो दधात ॥- ऋ. १०,०१५.०४ *उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु । त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥- ऋ. १०,०१५.०५ *आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे । मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम ॥- ऋ. १०,०१५.०६ *आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय । पुत्रेभ्यः पितरस्तस्य वस्वः प्र यच्छत त इहोर्जं दधात ॥- ऋ. १०,०१५.०७ *ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासोऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः । तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्भिः प्रतिकाममत्तु ॥- ऋ. १०,०१५.०८ *ये तातृषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविद स्तोमतष्टासो अर्कैः । आग्ने याहि सुविदत्रेभिरर्वाङ्सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्भिः ॥- ऋ. १०,०१५.०९ *ये सत्यासो हविरदो हविष्पा इन्द्रेण देवैः सरथं दधानाः । आग्ने याहि सहस्रं देववन्दैः परैः पूर्वैः पितृभिर्घर्मसद्भिः ॥- ऋ. १०,०१५.१० *अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सुप्रणीतयः । अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन ॥- ऋ. १०,०१५.११ *त्वमग्न ईळितो जातवेदोऽवाड्ढव्यानि सुरभीणि कृत्वी । प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि ॥- ऋ. १०,०१५.१२ १०,०१५.१३ ये चेह पितरो ये च नेह यांश्च विद्म यां उ च न प्रविद्म । १०,०१५.१३ त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व ॥ *अव सृज पुनरग्ने पितृभ्यो यस्त आहुतश्चरति स्वधाभिः । आयुर्वसान उप वेतु शेषः सं गच्छतां तन्वा जातवेदः ॥- ऋ. १०,०१६.०५ *यो अग्निः क्रव्यात्प्रविवेश वो गृहमिमं पश्यन्नितरं जातवेदसम् । तं हरामि पितृयज्ञाय देवं स घर्ममिन्वात्परमे सधस्थे ॥- ऋ. १०,०१६.१० *यो अग्निः क्रव्यवाहनः पितॄन्यक्षदृतावृधः । प्रेदु हव्यानि वोचति देवेभ्यश्च पितृभ्य आ ॥- ऋ. १०,०१६.११ *सरस्वति या सरथं ययाथ स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदन्ती । आसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयस्वानमीवा इष आ धेह्यस्मे ॥- ऋ. १०,०१७.०८ १०,०१७.०९ सरस्वतीं यां पितरो हवन्ते दक्षिणा यज्ञमभिनक्षमाणाः । १०,०१७.०९ सहस्रार्घमिळो अत्र भागं रायस्पोषं यजमानेषु धेहि ॥ १०,०१८.१३ उत्ते स्तभ्नामि पृथिवीं त्वत्परीमं लोगं निदधन्मो अहं रिषम् । १०,०१८.१३ एतां स्थूणां पितरो धारयन्तु तेऽत्रा यमः सादना ते मिनोतु ॥ १०,०३९.०६ इयं वामह्वे शृणुतं मे अश्विना पुत्रायेव पितरा मह्यं शिक्षतम् । १०,०३९.०६ अनापिरज्ञा असजात्यामतिः पुरा तस्या अभिशस्तेरव स्पृतम् ॥ *जीवं रुदन्ति वि मयन्ते अध्वरे दीर्घामनु प्रसितिं दीधियुर्नरः । वामं पितृभ्यो य इदं समेरिरे मयः पतिभ्यो जनयः परिष्वजे ॥- ऋ. १०,०४०.१० १०,०४८.०१ अहं भुवं वसुनः पूर्व्यस्पतिरहं धनानि सं जयामि शश्वतः । १०,०४८.०१ मां हवन्ते पितरं न जन्तवोऽहं दाशुषे वि भजामि भोजनम् ॥ १०,०५४.०३ क उ नु ते महिमनः समस्यास्मत्पूर्व ऋषयोऽन्तमापुः । १०,०५४.०३ यन्मातरं च पितरं च साकमजनयथास्तन्वः स्वायाः ॥ *महिम्न एषां पितरश्चनेशिरे देवा देवेष्वदधुरपि क्रतुम् । समविव्यचुरुत यान्यत्विषुरैषां तनूषु नि विविशुः पुनः ॥- ऋ. १०,०५६.०४ *द्विधा सूनवोऽसुरं स्वर्विदमास्थापयन्त तृतीयेन कर्मणा । स्वां प्रजां पितरः पित्र्यं सह आवरेष्वदधुस्तन्तुमाततम् ॥- ऋ. १०,०५६.०६ *मनो न्वा हुवामहे नाराशंसेन सोमेन । पितॄणां च मन्मभिः ॥- ऋ. १०,०५७.०३ १०,०५७.०५ पुनर्नः पितरो मनो ददातु दैव्यो जनः । १०,०५७.०५ जीवं व्रातं सचेमहि ॥ १०,०६१.०१ इदमित्था रौद्रं गूर्तवचा ब्रह्म क्रत्वा शच्यामन्तराजौ । १०,०६१.०१ क्राणा यदस्य पितरा मंहनेष्ठाः पर्षत्पक्थे अहन्ना सप्त होतॄन् ॥ १०,०६२.०२ य उदाजन्पितरो गोमयं वस्वृतेनाभिन्दन्परिवत्सरे वलम् । १०,०६२.०२ दीर्घायुत्वमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः ॥ *ते हि द्यावापृथिवी मातरा मही देवी देवाञ्जन्मना यज्ञिये इतः । उभे बिभृत उभयं भरीमभिः पुरू रेतांसि पितृभिश्च सिञ्चतः ॥- ऋ. १०,०६४.१४ १०,०६५.०८ परिक्षिता पितरा पूर्वजावरी ऋतस्य योना क्षयतः समोकसा । १०,०६५.०८ द्यावापृथिवी वरुणाय सव्रते घृतवत्पयो महिषाय पिन्वतः ॥ *वसिष्ठासः पितृवद्वाचमक्रत देवां ईळाना ऋषिवत्स्वस्तये । प्रीता इव ज्ञातयः काममेत्यास्मे देवासोऽव धूनुता वसु ॥- ऋ. १०,०६६.१४ १०,०६८.११ अभि श्यावं न कृशनेभिरश्वं नक्षत्रेभिः पितरो द्यामपिंशन् । १०,०६८.११ रात्र्यां तमो अदधुर्ज्योतिरहन्बृहस्पतिर्भिनदद्रिं विदद्गाः ॥ *वातासो न ये धुनयो जिगत्नवोऽग्नीनां न जिह्वा विरोकिणः । वर्मण्वन्तो न योधाः शिमीवन्तः पितॄणां न शंसाः सुरातयः ॥- ऋ. १०,०७८.०३ १०,०८५.१४ यदश्विना पृच्छमानावयातं त्रिचक्रेण वहतुं सूर्यायाः । १०,०८५.१४ विश्वे देवा अनु तद्वामजानन्पुत्रः पितराववृणीत पूषा ॥ *उदीर्ष्वातः पतिवती ह्येषा विश्वावसुं नमसा गीर्भिरीळे । अन्यामिच्छ पितृषदं व्यक्तां स ते भागो जनुषा तस्य विद्धि ॥- ऋ. १०,०८५.२१ *द्वे स्रुती अशृणवं पितॄणामहं देवानामुत मर्त्यानाम् । ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च ॥- ऋ. १०,०८८.१५ १०,०८८.१८ कत्यग्नयः कति सूर्यासः कत्युषासः कत्यु स्विदापः । १०,०८८.१८ नोपस्पिजं वः पितरो वदामि पृच्छामि वः कवयो विद्मने कम् ॥ १०,०९४.१२ ध्रुवा एव वः पितरो युगेयुगे क्षेमकामासः सदसो न युञ्जते । १०,०९४.१२ अजुर्यासो हरिषाचो हरिद्रव आ द्यां रवेण पृथिवीमशुश्रवुः ॥ १०,०९५.१२ कदा सूनुः पितरं जात इच्छाच्चक्रन्नाश्रु वर्तयद्विजानन् । १०,०९५.१२ को दम्पती समनसा वि यूयोदध यदग्निः श्वशुरेषु दीदयत् ॥ १०,१०६.०४ आपी वो अस्मे पितरेव पुत्रोग्रेव रुचा नृपतीव तुर्यै । १०,१०६.०४ इर्येव पुष्ट्यै किरणेव भुज्यै श्रुष्टीवानेव हवमा गमिष्टम् ॥ *आविरभून्महि माघोनमेषां विश्वं जीवं तमसो निरमोचि । महि ज्योतिः पितृभिर्दत्तमागादुरुः पन्था दक्षिणाया अदर्शि ॥- ऋ. १०,१०७.०१ १०,१२४.०४ बह्वीः समा अकरमन्तरस्मिन्निन्द्रं वृणानः पितरं जहामि । १०,१२४.०४ अग्निः सोमो वरुणस्ते च्यवन्ते पर्यावर्द्राष्ट्रं तदवाम्यायन् ॥ *अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे । ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥- ऋ. १०,१२५.०७ १०,१३०.०१ यो यज्ञो विश्वतस्तन्तुभिस्तत एकशतं देवकर्मेभिरायतः । १०,१३०.०१ इमे वयन्ति पितरो य आययुः प्र वयाप वयेत्यासते तते ॥ १०,१३०.०६ चाकॢप्रे तेन ऋषयो मनुष्या यज्ञे जाते पितरो नः पुराणे । १०,१३०.०६ पश्यन्मन्ये मनसा चक्षसा तान्य इमं यज्ञमयजन्त पूर्वे ॥ १०,१३१.०५ पुत्रमिव पितरावश्विनोभेन्द्रावथुः काव्यैर्दंसनाभिः । १०,१३१.०५ यत्सुरामं व्यपिबः शचीभिः सरस्वती त्वा मघवन्नभिष्णक् ॥ *ये चित्पूर्व ऋतसाप ऋतावान ऋतावृधः । पितॄन्तपस्वतो यम तांश्चिदेवापि गच्छतात् ॥- ऋ. १०,१५४.०४ *प्रजापतिर्मह्यमेता रराणो विश्वैर्देवैः पितृभिः संविदानः । शिवाः सतीरुप नो गोष्ठमाकस्तासां वयं प्रजया सं सदेम ॥- ऋ. १०,१६९.०४ १०,१८९.०१ आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः । १०,१८९.०१ पितरं च प्रयन्स्वः ॥ *वि॒द्मा श॒रस्य॑ पि॒तरं॑ प॒र्जन्यं॒ भूरि॑धायसम्। वि॒द्मो ष्व॑स्य मा॒तरं॑ पृथि॒वीं॑ भूरि॑वर्पसम्। - शौ.अ. १.२.१ *वि॒द्मा श॒रस्य॑ पि॒तरं॑ प॒र्जन्यं॑ श॒तवृ॑ष्ण्यम्। तेना॑ ते त॒न्वे॒३॒॑ शं क॑रं पृथि॒व्यां ते॑ नि॒षेच॑नं ब॒हिष्टे॑ अस्तु॒ बालिति॑॥ वि॒द्मा श॒रस्य॑ पि॒तरं॑ मि॒त्रं श॒तवृ॑ष्ण्यम्। तेना॑ ते ०००००॥ वि॒द्मा श॒रस्य॑ पि॒तरं॒ वरु॑णं श॒तवृ॑ष्ण्यम्। तेना॑ ते ०००००॥ वि॒द्मा श॒रस्य॑ पि॒तरं च॒न्द्रं श॒तवृ॑ष्ण्यम्। तेना॑ ते ००००००॥ वि॒द्मा श॒रस्य॑ पि॒तरं॒ सूर्यं॑ श॒तवृ॑ष्ण्यम्। तेना॑ ते ० ० ० ० ०॥ - शौ.अ. १.३.१-५ *भग॑मस्या॒ वर्च॒ आदि॒ष्यधि॑ वृ॒क्षादि॑व॒ स्रज॑म्। म॒हाबु॑ध्न इव॒ पर्व॑तो॒ ज्योक् पि॒तृष्वा॑स्ताम्॥ ए॒षा ते॑ राजन् क॒न्या व॒धूर्नि धू॑यतां यम। सा मा॒तुर्ब॑ध्यतां गृ॒हेऽथो॒ भ्रातु॒रथो॑ पि॒तुः॥ - शौ.अ. १.१४.१-२ *सरू॑पा॒ नाम॑ ते मा॒ता सरू॑पो॒ नाम॑ ते पि॒ता। स॒रू॒प॒कृत् त्वमो॑षधे॒ सा सरू॑पमि॒दं कृ॑धि॥ - शौ.अ. १.२४.३ *ये वो॒ देवाः पि॒तरो॒ ये च॒ पु॒त्राः सचे॒तसो मे शृणुते॒दमु॒क्तम्। सर्वे॒भ्यो वः॒ परि॒ ददाम्ये॒तं स्व॒स्त्येनं ज॒रसे॒ वहाथ॥ - शौ.अ. १.३०.२ *स्व॒स्ति मा॒त्र उ॒त पि॒त्रे नो॑ अस्तु स्व॒स्ति गोभ्यो॒ जग॑ते॒ पुरु॑षेभ्यः। - शौ.अ. १.३१.४ *वे॒नस्तत् प॑श्यत् पर॒मं गुहा॒ यद् यत्र॒ विश्वं॒ भव॒त्येक॑रूपम्। - - - - -॥ - - । त्रीणि॑ प॒दानि॒ निहि॑ता॒ गुहा॑स्य॒ यस्तानि॒ वेद॒ स पि॒तुष्पि॒तास॑त्॥ स नः॑ पि॒ता ज॑नि॒ता स उ॒त बन्धु॒र्धामा॑नि वेद॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। - शौ.अ. २.१.२ *आगा॒दुद॑गाद॒यं जी॒वानां॒ व्रात॒मप्य॑गात्। अभू॑दु पु॒त्राणां पि॒ता नृ॒णां च॒ भग॑वत्तमः॥(दे. वनस्पतिः) – शौ.अ. २.९.२ *इष्टा॒पू॒र्तम॑वतु नः पितॄ॒णामामुं द॑दे॒ हर॑सा॒ दैव्ये॑न॥ - शौ.अ. २.१२.४ *द्यावा॑पृथिवी॒ अनु॒ मा दी॑धीथां॒ विश्वे॑ देवासो॒ अनु॒ मा र॑भध्वम्। अङ्गि॑रसः॒ पित॑रः॒ सोम्या॑सः पा॒पमार्छ॑त्वपका॒मस्य॑ क॒र्ता॥ - शौ.अ. २.१२.५ *घृ॒तं पी॒त्वा मधु॒ चारु॒ गव्यं॑ पि॒तेव॑ पु॒त्रान॒भि र॑क्षतादि॒मम्॥(दे. अग्निः) - शौ.अ. २.१३.१ *द्यौष्ट्वा॑ पि॒ता पृ॑थि॒वी मा॒ता ज॒रामृ॑त्युं कृणुतां संविदा॒ने। यथा॒ जीवा॒ अदि॑तेरु॒पस्थे॑ प्राणापा॒नाभ्यां गुपि॒तः श॒तं हिमाः॑॥ - शौ.अ. २.२८.४ *क॒र्शफ॑स्य विश॒फस्य॒ द्यौः पि॒ता पृ॑थि॒वी मा॒ता। - शौ.अ. ३.९.१ *यासां॒ द्यौः पि॒ता पृ॑थि॒वी मा॒ता स॑मु॒द्रो मूलं॑ वी॒रुधां ब॒भूव॑। - शौ.अ. ३.२३.६ *आजा॑मि॒ त्वाज॑न्या॒ परि॑ मा॒तुरथो॑ पि॒तुः। यथा॒ मम॒ क्रता॒वसो॒ मम॑ चि॒त्तमु॒पाय॑सि॥ - शौ.अ. ३.२५.५ *दक्षि॑णा॒ दिगिन्द्रोऽधि॑पति॒स्तिर॑श्चिराजी रक्षि॒ता पि॒तर॒ इष॑वः। - शौ.अ. ३.२७.२ *पञ्चा॑पूपं शिति॒पाद॒मविं लो॒केन॒ संमि॑तम्। प्र॒दा॒तोप॑ जीवति पितॄ॒णां लो॒केऽक्षि॑तम्॥ - शौ.अ. ३.२९.४ *अनु॑व्रतः पि॒तुः पु॒त्रो मा॒त्रा भ॑वतु॒ संम॑नाः। - शौ.अ. ३.३०.२ *इ॒यं पित्र्या॒ राष्ट्र्ये॒त्वग्रे॑ प्रथ॒माय॑ ज॒नुषे॑ भुवने॒ष्ठाः।(ऋ. वेनः, दे. बृहस्पतिः) – शौ.अ. ४.१.२ *योऽथ॑र्वाणं पि॒तरं॑ दे॒वब॑न्धुं॒ बृह॒स्पतिं॒ नम॒साव॑ च॒ गच्छा॑त्। त्वं विश्वे॑षां जनि॒ता यथासः॑ क॒विर्दे॒वो न दभा॑यत् स्व॒धावा॑न्॥– शौ.अ. ४.१.७ *स्वप्तु॑ मा॒ता स्वप्तु॑ पि॒ता स्वप्तु॒ श्वा स्वप्तु॑ वि॒श्पतिः॑। - शौ.अ. ४.५.६ *सुप॒र्णस्त्वा॑ ग॒रुत्मा॒न् विष॑ प्रथ॒ममा॑वयत्। नामी॑मदो॒ नारू॑रुप उ॒तास्मा॑ अभवः पि॒तुः॥(दे. तक्षकः) – शौ.अ. ४.६.३ *त्रयो॑ दा॒सा आञ्ज॑नस्य त॒क्मा ब॒लास॒ आदहिः॑। वर्षि॑ष्ठः॒ पर्व॑तानां त्रिक॒कुन्नाम॑ ते पि॒ता॥ - शौ.अ. ४.९.८ *अ॒पो नि॒षि॒ञ्चन्नसु॒रः पि॒ता नः॒ श्वस॒न्तु॒ गर्ग॒रा अ॒पां व॒रु॒णाव नीची॒र॒पः सृ॒ज। वद॒न्तु॒ पृश्नि॒बाहवो म॒ण्डूका॒ इरि॒णानु॒॥ - शौ.अ. ४.१५.१२ *खण्व॒खा३इ॒ खैम॒खा३इ मध्ये॑ तदुरि। व॒र्षं व॑नुध्वं पितरो म॒रुतां॒ मन॑ इच्छत॥(दे. मण्डूकाः पितरश्च) - शौ.अ. ४.१५.१५ *वि॒भि॒न्द॒ती श॒तशा॑खा विभि॒न्दन् नाम॑ ते पि॒ता। प्र॒त्यग् वि भिन्धि॒ त्वं तं यो अ॒स्माँ अ॑भि॒दास॑ति॥(दे. अपामार्गो वनस्पतिः) - शौ.अ. ४.१९.५ *अ॒हं सु॑वे पि॒तर॑मस्य मू॒र्धन् मम॒ योनि॑र॒प्स्व॑१॒न्तः स॑मु॒द्रे। ततो॒ वि ति॑ष्ठे॒ भुव॑नानि॒ विश्वो॒तामूं द्यां व॒र्ष्मणोप॑ स्पृशामि॥(दे. राष्ट्रीदेवी, सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक्) - शौ.अ. ४.३०.७ *उ॒त पु॒त्रः पि॒तरं॑ क्ष॒त्रमी॑डे ज्ये॒ष्ठं म॒र्याद॑मह्वयन्त्स्व॒स्तये॑। दर्श॒न् नु ता व॑रुण॒ यास्ते॑ वि॒ष्ठा आ॒वर्व्र॑ततः कृणवो॒ वपूं॑षि॥(दे. वरुणः) - शौ.अ. ५.१.८ *रात्री॑ मा॒ता नभः॑ पि॒तार्य॒मा ते॑ पिताम॒हः। सि॒ला॒ची नाम॒ वा अ॑सि॒ सा दे॒वाना॑मसि॒ स्वसा॑॥(दे. लाक्षा) – शौ.अ. ५.५.१ *सि॒ला॒ची नाम॑ कानी॒नोऽज॑बभ्रु पि॒ता तव॑। अश्वो॑ य॒मस्य॒ यः श्या॒वस्तस्य॑ हा॒स्नास्यु॑क्षि॒ता॥ - शौ.अ. ५.५.८ *आलि॑गी च॒ विलि॑गी च पि॒ता च॑ माता॒ च॑। वि॒द्म वः॑ स॒र्वतो॒ बन्ध्वर॑साः॒ किं क॑रिष्यथ॥ - शौ.अ. ५.१३.७ *दे॒व॒पी॒युश्च॑रति॒ मर्त्ये॑षु गरगी॒र्णो भ॑व॒त्यस्थि॑भूयान्। यो ब्रा॑ह्म॒णं दे॒वब॑न्धुं हि॒नस्ति॒ न स पि॑तृ॒याण॒मप्ये॑ति लो॒कम्॥ - शौ.अ. ५.१८.१३ *क्षी॒रं यद॑स्याः पी॒यते॒ तद् वै पि॒तृषु॒ किल्बि॑षम्॥(दे. ब्रह्मगवी) - शौ.अ. ५.१९.५ *म॒रुतां॑ पि॒ता प॑शू॒नामधि॑पतिः॒ स मा॑वतु। अ॒स्मिन् ब्रह्म॑ण्य॒स्मिन् कर्म॑ण्य॒स्यां पु॑रो॒धाया॑म॒स्यां प्र॑ति॒ष्ठाया॑म॒स्यां चित्त्या॑म॒स्यामाकू॑त्याम॒स्यामा॒शिष्य॒स्यां दे॒वहू॑त्यां॒ स्वाहा॑॥ - शौ.अ. ५.२४.१२ *य॒मः पि॑तॄ॒णामधि॑पतिः॒ स मा॑वतु। अ॒स्मिन् ब्रह्म॑ण्य॒स्मिन् कर्म॑ण्य॒स्यां पु॑रो॒धाया॑म॒स्यां प्र॑ति॒ष्ठाया॑म॒स्यां चित्त्या॑म॒स्यामाकू॑त्याम॒स्यामा॒शिष्य॒स्यां दे॒वहू॑त्यां॒ स्वाहा॑॥ पि॒तरः॒ परे॒ ते मा॑वन्तु। अ॒स्मिन् ० ० ० ॥ त॒ता अव॑रे॒ ते मा॑वन्तु। ० ० ० ०॥ तत॑स्तताम॒हास्ते मा॑वन्तु। ०००००॥ – शौ.अ. ५.२४.१५ *आ॒वत॑स्त आ॒वतः॑ परा॒वत॑स्त आ॒वतः॑। इहैव भ॑व॒ मा नु गा॒ मा पूर्वा॒ननु॑ गाः पि॒तॄनसुं॑ बध्नामि ते दृ॒ढम्॥ - शौ.अ. ५.३०.१ *यदेन॑सो मा॒तृकृ॑ता॒च्छेषे॑ पि॒तृकृ॑ताच्च॒ यत्। उ॒न्मो॒च॒न॒प्र॒मो॒चने उ॒भे वा॒चा व॑दामि ते॥ - शौ.अ. ५.३०.४ *यत् ते॑ मा॒ता यत् ते॑ पि॒ता जा॒मिर्भ्राता॑ च॒ सर्ज॑तः। प्र॒त्यक् से॑वस्व भेष॒जं ज॒रद॑ष्टिं कृणोमि त्वा॥ - शौ.अ. ५.३०.५ *नमो॑ य॒माय॒ नमो॑ अस्तु मृ॒त्यवे॒ नमः॑ पि॒तृभ्य॑ उ॒त ये नय॑न्ति। - शौ.अ. ५.३०.१२ *धि॒ये सम॑श्विना॒ प्राव॑तं न उरु॒ष्या ण॑ उरुज्म॒न्नप्र॑युच्छन्। द्यौ॒३॒॑ष्पित॑र्या॒वय॑ दु॒च्छुना॒ या॥ - शौ.अ. ६.४.३ *वि॒हह्लो॒ नाम॑ ते पि॒ता म॒दाव॑ती॒ नाम॑ ते मा॒ता। स हि॑न॒ त्वम॑सि॒ यस्त्वमा॒त्मान॒माव॑यः॥(दे. चन्द्रमाः?) - शौ.अ. ६.१६.२ *आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन्मा॒तरं॑ पु॒रः। पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्वः॥ - शौ.अ. ६.३१.१ *रु॒द्रस्य॒ मूत्र॑मस्य॒मृत॑स्य॒ नाभिः॑। वि॒षा॒ण॒का नाम॒ वा अ॑सि पितॄ॒णां मूला॒दुत्थि॑ता वातीकृत॒नाश॑नी॥(दे. वनस्पतिः) – शौ.अ. ६.४४.३ *यो न जी॒वोऽसि॒ न मृ॒तो दे॒वाना॑ममृतग॒र्भोऽसि स्वप्न। व॒रु॒णा॒नी ते॑ मा॒ता य॒मः पि॒तार॑रु॒र्नामा॑सि॥ - शौ.अ. ६.४६.१ *अ॒य॒स्मये॑ द्रुप॒दे बे॑धिष इ॒हाभिहि॑तो मृ॒त्युभि॒र्ये स॒हस्र॑म्। य॒मेन॒ त्वं पि॒तृभिः॑ संविदा॒न उ॑त्त॒मं नाक॒मधि॑ रोहये॒मम्॥(दे. मृत्युः) -शौ.अ. ६.६३.३ *यन्मा॑ हु॒तमहु॑तमाज॒गाम॑ द॒त्तं पि॒तृभि॒रनु॑मतं मनु॒ष्यैः। यस्मा॑न्मे॒ मन॒ उदि॑व॒ रार॑जीत्य॒ग्निष्टद्धोता॒ सुहु॑तं कृणोतु॥ - शौ.अ. ६.७१.२ *अ॒य॒स्मये॑ द्रुप॒दे बे॑धिष इ॒हाभिहि॑तो मृ॒त्युभि॒र्ये स॒हस्र॑म्। य॒मेन॒ त्वं पि॒तृभिः॑ संविदा॒न उ॑त्त॒मं नाक॒मधि॑ रोहये॒मम्॥(दे. निर्ऋतिः) -शौ.अ. ६.८४.४ *व्या॒घ्रेऽह्न्य॑जनिष्ट वी॒रो न॑क्षत्र॒जा जाय॑मानः सु॒वीरः॑। स मा व॑धीत् पि॒तरं॒ वर्ध॑मानो॒ मा मा॒तरं॒ प्र मि॑नी॒ज्जनि॑त्रीम्॥(दे. अग्निः) - शौ.अ. ६.११०.३ *उन्मु॑ञ्च॒ पाशां॒स्त्वम॑ग्न ए॒षां त्रय॑स्त्रि॒भिरुत्सि॑ता॒ येभि॒रास॑न्। स ग्राह्याः॒ पाशा॒न् वि चृ॑त प्रजा॒नन् पि॑तापु॒त्रौ मा॒तरं॑ मुञ्च॒ सर्वा॑न्॥ - शौ.अ. ६.११२.२ *वै॒व॒स्व॒तः कृ॑णवद् भाग॒धेयं॒ मधु॑भागो॒ मधु॑ना॒ सं सृ॑जाति। मा॒तुर्यदेन॑ इषि॒तं न॒ आग॒न् यद् वा॑ पि॒ताप॑राद्धो जिही॒डे॥ - शौ.अ. ६.११६.२ *यदी॒दं मा॒तुर्यदि॑ वा पि॒तुर्नः॒ परि॒ भ्रातुः॑ पु॒त्राच्चेत॑स॒ एन॒ आग॑न्। याव॑न्तो अ॒स्मान् पि॒तरः॒ सच॑न्ते॒ तेषां॒ सर्वे॑षां शि॒वो अ॑स्तु म॒न्युः॥ - शौ.अ. ६.११६.३ *यद॒न्तरि॑क्षं पृथि॒वीमु॒त द्यां यन्मा॒तरं॑ पि॒तरं॑ वा जिहिंसि॒म। अ॒यं तस्मा॒द् गार्ह॑पत्यो नो अ॒ग्निरुदिन्न॑याति सुकृ॒तस्य॑ लो॒कम्॥ - शौ.अ. ६.१२०.१ *भूमिर्मा॒तादि॑तिर्नो ज॒नित्रं॒ भ्राता॒न्तरि॑क्षम॒भिश॑स्त्या नः। द्यौर्नः॑ पि॒ता पित्र्या॒च्छं भ॑वाति जा॒मिमृ॒त्वा माव॑ पत्सि लो॒कात्॥ - शौ.अ. ६.१२०.२ *त॒तं तन्तु॒मन्वेके॑ तरन्ति॒ येषां॑ द॒त्तं पित्र्य॒माय॑नेन। अ॒ब॒न्ध्वेके॒ दद॑तः प्र॒यच्छ॑न्तो॒ दातुं॒ चेच्छिक्षा॒न्त्स स्व॒र्ग ए॒व॥ - शौ.अ. ६.१२२.२ *यद् धाव॑सि त्रियोज॒नं प॑ञ्चयोज॒नमाश्वि॑नम्। तत॒स्त्वं पुन॒राय॑सि पु॒त्राणां॑ नो असः पि॒ता॥(दे. स्मरः) - शौ.अ. ६.१३१.३ *यौ व्या॒घ्रवव॑रूढौ॒ जिघ॑त्सतः पि॒तरं॑ मा॒तरं॑ च। यौ दन्तौ॑ ब्रह्मणस्पते शि॒वौ कृ॑णु जातवेदः॥ व्री॒हिम॑त्तं॒ यव॑मत्त॒मथो॒ माष॒मथो॒ तिल॑म्। ए॒ष वां॑ भा॒गो निहि॑तो रत्न॒धेया॑य दन्तौ॒ मा हिं॑सिष्टं पि॒तरं॑ मा॒तरं॑ च॥ उप॑हूतौ स॒युजौ॑ स्यो॒नौ दन्तौ॑ सुम॒ङ्गलौ॑। अ॒न्यत्र॑ वां घो॒रं तन्व॑१॒ः परै॑तु दन्तौ॒ मा हिं॑सिष्टं पि॒तरं॑ मा॒तरं॑ च॥ - शौ.अ. ६.१४०.१-३ *स वे॑द पु॒त्रः पि॒तरं॒ च मा॒तरं॒ स सू॒नुर्भु॑व॒त् स भु॑व॒त् पुन॑र्मघः। स द्यामौ॑र्णोद॒न्तरि॑क्षं॒ स्व॑१॒ स इ॒दं विश्व॑मभव॒त् स आभ॑वत्॥(दे. आत्मा) - शौ.अ. ७.१.२ *अथ॑र्वाणं पि॒तरं॑ दे॒वब॑न्धुं मा॒तुर्गर्भं॑ पि॒तुरसुं॒ युवा॑नम्। य इ॒मं य॒ज्ञं मन॑सा चि॒केत॒ प्र णो॑ वोच॒स्तमि॒हेह ब्रवः॥(दे. आत्मा) – शौ.अ. ७.२.१ *अदि॑ति॒र्द्यौरदि॑तिर॒न्तरि॑क्ष॒मदि॑तिर्मा॒ता स पि॒ता स पु॒त्रः। - शौ.अ. ७.६.१ *स॒भा च॑ मा॒ समि॑तिश्चावतां प्र॒जाप॑तेर्दुहि॒तरौ॑ संविदा॒ने। येना॑ सं॒गच्छा॒ उप॑ मा॒ स शि॑क्षा॒च्चारु॑ वदानि पितरः॒ संग॑तेषु॥ - शौ.अ. ७.१३.१ *सावी॒र्हि दे॑व प्रथ॒माय॑ पि॒त्रे व॒र्ष्माण॑मस्मै वरि॒माण॑मस्मै। अथा॒स्मभ्यं॑ सवित॒र्वार्या॑णि दि॒वोदि॑व॒ आ सु॑वा॒ भूरि॑ प॒श्वः॥ - शौ.अ. ७.१५.३ *श्ये॒नो नृ॒चक्षा॑ दि॒व्यः सु॑प॒र्णः स॒हस्र॑पाच्छ॒तयो॑निर्वयो॒धाः। स नो॒ नि य॑च्छा॒द् वसु॒ यत् परा॑भृतम॒स्माक॑मस्तु पि॒तृषु॑ स्व॒धाव॑त्॥ - शौ.अ. ७.४२.२ *स॒प्त क्ष॑रन्ति॒ शिशवे म॒रुत्व॑ते पि॒त्रे पुत्रासो॒ अप्य॑वीवृतन्नृ॒तानि॑।(दे. सरस्वती) – शौ.अ. ७.५९.२ *इ॒दं ते॑ ह॒व्यं घृ॒तव॑त् सरस्वती॒दं पि॑तॄ॒णां ह॒विरा॒स्यं॑१॒ यत्। इमानि॑ त उदि॒ता शंत॑मानि॒ तेभि॑र्व॒यं मधु॑मन्तः स्याम॥ - शौ.अ. ७.७०.२ *मा ते॒ मन॒स्तत्र॑ गा॒न्मा ति॒रो भू॒न्मा जी॒वेभ्यः॒ प्र म॑दो॒ मानु॑ गाः पि॒तॄन्। विश्वे॑ दे॒वा अ॒भि र॑क्षन्तु त्वे॒ह॥ - शौ.अ. ८.१.७ *यस्त्वा॒ स्वप्ने॑ नि॒पद्य॑ते॒ भ्राता॑ भू॒त्वा पि॒तेव॑ च। ब॒जस्तान्त्स॑हतामि॒तः क्ली॒बरू॑पांस्तिरी॒टिनः॑॥ - शौ.अ. ८.६.७ *त्राय॑न्तामि॒मं पुरु॑षं॒ यक्ष्मा॑द् दे॒वेषि॑ता॒दधि॑। यासां॒ द्यौष्पि॒ता पृ॑थि॒वी मा॒ता स॑मु॒द्रो मूलं॑ वी॒रुधां॑ ब॒भूव॑॥ - शौ.अ. ८.७.२ *वि॒राज॑माहु॒र्ब्रह्म॑णः पि॒तरं॒ तां नो॒ वि धे॑हि यति॒धा सखि॑भ्यः॥ - शौ.अ. ८.९.७ *सोद॑क्राम॒त् सा पि॒तॄनाग॑च्छ॒त् तां पि॒तरो॑ऽघ्नत॒ सा मा॒सि सम॑भवत्। तस्मा॑त् पि॒तृभ्यो॑ मा॒स्युप॑मास्यं ददति॒ प्र पि॑तृ॒याणं॒ पन्थां॑ जानाति॒ य एवं वेद॑॥ - शौ.अ. ८.१२.३ *सोद॑क्राम॒त् सा पि॒तॄनाग॑च्छ॒त् तां पि॒तर॒ उपा॑ह्वयन्त॒ स्वध॒ एहीति॑। तस्या॑ य॒मो राजा॑ व॒त्स आसी॑द् रजतपा॒त्रं पात्र॑म्। तामन्त॑को मार्त्य॒वोऽधो॒क् तां स्व॒धामे॒वाधो॑क्। तां स्व॒धां पि॒तर॒ उप॑ जीवन्त्युपजीव॒नीयो॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॥ - शौ.अ. ८.१३.५ *कामो॑ जज्ञे प्रथ॒मो नैनं॑ दे॒वा आ॑पुः पि॒तरो॒ न मर्त्याः॑। - शौ.अ. ९.२.१९ *अ॒पां यो अग्रे॑ प्रति॒मा ब॒भूव॑ प्र॒भूः सर्व॑स्मै पृथि॒वीव॑ दे॒वी। पि॒ता व॒त्सानां॒ पति॑र॒घ्न्यानां॑ साह॒स्रे पोषे॒ अपि॑ नः कृणोतु॥(दे. ऋषभः) - शौ.अ. ९.४.२ *पि॒ता व॒त्सानां॒ पति॑र॒घ्न्याना॒मथो॑ पि॒ता म॑ह॒तां गर्ग॑राणाम्। व॒त्सो ज॒रायु॑ प्रति॒धुक् पी॒यूष॑ आ॒मिक्षा॑ घृ॒तं तद् व॑स्य॒ रेतः॑॥ - शौ.अ. ९.४.४ *ए॒तद् वो॒ ज्योतिः॑ पितरस्तृ॒तीयं॒ पञ्चौ॑द॒नं ब्र॒ह्मणे॒ऽजं द॑दाति। अ॒जस्तमां॒स्यप॑ हन्ति दू॒रम॒स्मिंल्लो॒के श्र॒द्दधा॑नेन द॒त्तः॥ - शौ.अ. ९.५.११ *आ॒त्मानं॑ पि॒तरं॑ पु॒त्रं पौत्रं॑ पिताम॒हम्। जा॒यां जनि॑त्रीं मा॒तरं॒ ये प्रि॒यास्तानुप॑ ह्वये॥ - शौ.अ. ९.५.३० *मा॒ता पि॒तर॑मृ॒त आ ब॑भाज धी॒त्यग्रे॒ मन॑सा॒ सं हि ज॒ग्मे। सा बी॑भ॒त्सुर्गर्भ॑रसा॒ निवि॑द्धा॒ नम॑स्वन्त इदु॑पवा॒कमी॑युः॥(दे. कामः, आत्मा? इत्यादि) - शौ.अ. ९.१४.८ *ति॒स्रो मा॒तॄस्त्रीन् पि॒तॄन् बिभ्र॒देक॑ ऊ॒र्ध्वस्त॑स्थौ॒ नेमव॑ ग्लापयन्त। म॒न्त्रय॑न्ते दि॒वो अ॒मुष्य॑ पृ॒ष्ठे वि॑श्व॒विदो॒ वाच॒मवि॑श्वविन्नाम्॥ - शौ.अ. ९.१४.१० *पञ्च॑पादं पि॒तरं॒ द्वाद॑शाकृतिं दि॒व आ॑हुः॒ परे॒ अर्धे॑ पुरी॒षिण॑म्। अथे॒मे अ॒न्य उप॑रे विचक्ष॒णे स॒प्तचक्रे॒ षड॑र आहु॒रर्पि॑तम्॥ - शौ.अ. ९.१४.१२ *स्त्रियः॑ स॒तीस्ताँ उ॑ मे पुं॒स आ॑हुः॒ पश्य॑दक्ष॒ण्वान् न वि चे॑तद॒न्धः। क॒विर्यः पु॒त्रः स ई॒मा चि॑केत॒ यस्ता वि॑जा॒नात् स पि॒तुष्पि॒तास॑त्॥ - शौ.अ. ९.१४.१५ *अ॒वः परे॑ण पि॒तरं॒ यो अ॑स्य॒ वेदा॒वः परे॑ण प॒र ए॒नाव॑रेण। क॒वी॒यमा॑नः॒ क इ॒ह प्र वो॑चद् दे॒वं मनः॒ कुतो॒ अधि॒ प्रजा॑तम्॥ - शौ.अ. ९.१४.१८ *यस्मि॑न् वृ॒क्षे म॒ध्वदः॑ सुप॒र्णा नि॑वि॒शन्ते॒ सुव॑ते॒ चाधि॒ विश्वे॑। तस्य॒ यदा॒हुः पिप्प॑लं स्वा॒द्वग्रे॒ तन्नोन्न॑श॒द् यः पि॒तरं॒ न वेद॑॥ - शौ.अ. ९.१४.२१ *द्यौर्नः॑ पि॒ता ज॑नि॒ता नाभि॒रत्र॒ बन्धु॑र्नो मा॒ता पृ॑थि॒वी म॒हीयम्। उत्ता॒नयो॑श्च॒म्वो॒३॒॑र्योनि॑र॒न्तरत्रा॑ पि॒ता दु॑हितुर्गर्भ॒माधा॑त्॥ - शौ.अ. ९.१५.१२ *यत् ते॑ पि॒तृभ्यो॒ दद॑तो य॒ज्ञे वा॒ नाम॑ जगृ॒हुः। सं॒दे॒श्या॒३॒॑त् सर्व॑स्मात् पा॒पादि॒मा मु॑ञ्चन्तु॒ त्वौष॑धीः॥ - शौ.अ. १०.१.११ *दे॒वै॒न॒सात् पित्र्या॑न्नामग्रा॒हात् संदे॒श्यादभि॒निष्कृ॑तात्। मु॒ञ्चन्तु॑ त्वा वी॒रुधो॑ वी॒र्येण॒ ब्रह्म॑ण ऋ॒ग्भिः पय॑स॒ ऋषी॑णाम्॥ - शौ.अ. १०.१.१२ *अ॒भ्य॑१॒क्ताक्ता॒ स्वरंकृता॒ सर्वं॒ भर॑न्ती दुरि॒तं परे॑हि। जा॒नी॒हि कृ॑त्ये क॒र्तारं॑ दुहि॒तेव॑ पि॒तरं॒ स्वम्॥ - शौ.अ. १०.१.२५ *यन्मे॑ मा॒ता यन्मे॑ पि॒ता भ्रात॑रो॒ यच्च॑ मे॒ स्वा यदेन॑श्चकृ॒मा व॒यम्। ततो॑ नो वारयिष्यते॒ऽयं दे॒वो वन॒स्पतिः॑॥ - शौ.अ. १०.३.८ *पि॒तॄणां भा॒ग स्थ॑। अ॒पां शु॒क्रमा॑पो देवी॒र्वर्चो॑ अ॒स्मासु॑ धत्त। प्र॒जाप॑तेर्वो॒ धाम्ना॒स्मै लो॒काय॑ सादये॥(दे. आपः, चन्द्रमाः) - शौ.अ. १०.५.१३ *तस्मै॑ घृ॒तं सुरां॒ मध्वन्न॑मन्नं क्षदामहे। स नः॑ पि॒तेव॑ पु॒त्रेभ्यः॒ श्रेयः॑ श्रेयश्चिकित्सतु॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्वो॑ दे॒वेभ्यो॑ म॒णिरेत्य॑॥ - शौ.अ. १०.६.५ *यं दे॒वाः पि॒तरो॑ मनु॒ष्या उप॒जीव॑न्ति सर्व॒दा। स मा॒यमधि॑ रोहतु म॒णिः श्रैष्ठ्या॑य मूर्ध॒तः॥ - शौ.अ. १०.६.३२ *उ॒तैषां॑ पि॒तोत वा॑ पु॒त्र ए॑षामु॒तैषां॑ ज्ये॒ष्ठ उ॒त वा॑ कनि॒ष्ठः। एको॑ ह दे॒वो मन॑सि॒ प्रवि॑ष्टः प्रथ॒मो जा॒तः स उ॒ गर्भे॑ अ॒न्तः॥(दे. आत्मा) - शौ.अ. १०.८.२८ *दे॒वाः पि॒तरो॑ मनु॒ष्या गन्धर्वाप्स॒रस॑श्च॒ ये। ते त्वा॒ सर्वे॑ गोप्स्यन्ति॒ साति॑रा॒त्रमति॑ द्रव॥ - शौ.अ. १०.९.९ *व॒शामे॒वामृत॑माहुर्व॒शां मृ॒त्युमुपा॑सते। व॒शेदं सर्व॑मभवद् दे॒वा म॑नु॒ष्या॒३॒॑ असु॑राः पि॒तर॒ ऋष॑यः॥ - शौ.अ. १०.१०.२६ *त्रे॒धा भा॒गो निहि॑तो॒ यः पु॒रा वो॑ दे॒वानां पितॄ॒णां मर्त्या॑नाम्। अंशा॑न् जानीध्वं॒ वि भ॑जामि॒ तान् वो॒ यो दे॒वानां॒ स इमां पा॑रयाति॥ - शौ.अ. ११.१.५ *उ॒रुः प्र॑थस्व मह॒ता म॑हि॒म्ना स॒हस्र॑पृष्ठः सुकृ॒तस्य॑ लो॒के। पि॒ता॒म॒हाः पि॒तरः॑ प्र॒जोप॒जाहं प॒क्ता प॑ञ्चद॒शस्ते॑ अस्मि॥ - शौ.अ. ११.१.१९ *इ॒दं मे॒ ज्योति॑र॒मृतं॒ हिर॑ण्यं प॒क्वं क्षेत्रा॑त् काम॒दुघा॑ म ए॒षा। इ॒दं धनं॒ नि द॑धे ब्राह्म॒णेषु॑ कृ॒ण्वे पन्थां॑ पि॒तृषु॒ यः स्व॒र्गः॥ - शौ.अ. ११.१.२८ *ब॒भ्रेर॑ध्वर्यो॒ मुख॑मे॒तद् वि मृ॒ड्ढ्याज्या॑य लो॒कं कृ॑णुहि प्रवि॒द्वान्। घृ॒तेन॒ गात्रानु॒ सर्वा॒ वि मृ॑ड्ढि कृ॒ण्वे पन्थां॑ पि॒तृषु॒ यः स्व॒र्गः॥ - शौ.अ. ११.१.३१ *मा नो॑ हिंसीः पि॒तरं॑ मा॒तरं॑ च॒ स्वां त॒न्वं रुद्र॒ मा री॑रिषो नः॥ - शौ.अ. ११.२.२९ *प्रा॒णः प्र॒जा अनु॑ वस्ते पि॒ता पु॒त्रमि॑व प्रि॒यम्। प्रा॒णो ह॒ सर्व॑स्येश्व॒रो यच्च॑ प्रा॒णति॒ यच्च॒ न॥ - शौ.अ. ११.६.१० *अ॒न्तर्गर्भ॑श्चरति दे॒वता॒स्वाभू॑तो भू॒तः स उ॑ जायते॒ पुनः॑। स भू॒तो भव्यं॑ भवि॒ष्यत् पि॒ता पु॒त्रं प्र वि॑वेशा॒ शची॑भिः॥ - शौ.अ. ११.६.२० *ब्र॒ह्म॒चा॒रिणं॑ पि॒तरो॑ देवज॒नाः पृथ॑ग् दे॒वा अ॑नुसंय॑न्ति॒ सर्वे॑। - शौ.अ. ११.७.२ *स॒प्त॒र्षीन् वा इ॒दं ब्रू॑मो॒ऽपो दे॒वीः प्र॒जापतिम्। पि॒तॄन् य॒मश्रे॑ष्ठान् ब्रूम॒स्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः॥ - शौ.अ. ११.८.११ *अ॒राया॑न् ब्रूमो॒ रक्षां॑सि स॒र्पान् पु॑ण्यज॒नान् पि॒तॄन्। मृ॒त्यूनेक॑शतं ब्रूम॒स्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः॥ - शौ.अ. ११.८.१६ *उ॒प॒हव्यं॑ विषू॒वन्तं॒ ये च॑ य॒ज्ञा गुहा॑ हि॒ताः। बिभ॑र्ति भ॒र्ता विश्व॒स्योच्छि॑ष्टो जनि॒तुः पि॒ता। पि॒ता ज॑नि॒तुरुच्छि॒ष्टोऽसोः॒ पौत्रः॑ पिताम॒हः। स क्षि॑यति॒ विश्व॒स्येशा॑नो॒ वृषा॒ भूम्या॑मति॒घ्न्यः॥ - शौ.अ. ११.९.१५-१६ *दे॒वाः पि॒तरो॑ मनु॒ष्या गन्धर्वाप्स॒रस॑श्च॒ ये। उच्छि॑ष्टाज्जज्ञिरे॒ सर्वे॑ दि॒वि दे॒वा दि॑वि॒श्रितः॑॥ - शौ.अ. ११.९.२७ *य॒दा त्वष्टा॒ व्यतृ॑णत् पि॒ता त्वष्टु॒र्य उत्त॑रः। गृ॒हं कृ॒त्वा मर्त्यं॑ दे॒वाः पुरु॑ष॒मावि॑शन्॥ - शौ.अ. ११.१०.१८ *वन॒स्पती॑न् वानस्प॒त्यानोष॑धीरु॒त वी॒रुधः॑। ग॒न्ध॒र्वा॒प्स॒रसः॑ स॒र्पान् दे॒वान् पु॑ण्यज॒नान् पि॒तॄन्। सर्वां॒स्ताँ अ॑र्बुदे॒ त्वम॒मित्रे॑भ्यो दृ॒शे कु॑रूदा॒रांश्च॒ प्र द॑र्शय॥ - शौ.अ. ११.११.२४ *यत् ते॒ मध्यं॑ पृथिवि॒ यच्च॒ नभ्यं॒ यास्त॒ ऊर्ज॑स्त॒न्वः संबभू॒वुः। तासु॑ नो धेह्य॒भि नः॑ पवस्व मा॒ता भूमिः॑ पु॒त्रो अ॒हं पृ॑थि॒व्याः। प॒र्जन्यः॑ पि॒ता स उ॑ नः पिपर्तु॥ - शौ.अ. १२.१.१२ *यो अ॒ग्निः क्र॒व्यात् प्र॑वि॒वेश॑ नो गृ॒हमि॒मं पश्य॒न्नित॑रं जा॒तवे॑दसम्। तं ह॑रामि पितृय॒ज्ञाय॑ दू॒रं स घ॒र्ममि॑न्धां पर॒मे स॒धस्थे॑॥ - शौ.अ. १२.२.७ *क्र॒व्याद॑म॒ग्निमि॑षि॒तो ह॑रामि॒ जना॑न् दृं॒हन्तं॒ वज्रे॑ण मृ॒त्युम्। नि तं शा॑स्मि॒ गार्ह॑पत्येन वि॒द्वान् पि॑तॄ॒णां लो॒केऽपि॑ भा॒गो अ॑स्तु॥ - शौ.अ. १२.२.९ *क्र॒व्याद॑म॒ग्निं श॑शमा॒नमु॒क्थ्यं॑१॒ हि॑णोमि प॒थिभिः॑ पितृ॒याणैः॑। मा दे॑व॒यानैः॒ पुन॒रा गा॒ अत्रै॒वैधि॑ पि॒तृषु॑ जागृहि॒ त्वम्॥ - शौ.अ. १२.२.१० *व्याक॑रोमि ह॒विषा॒हमे॒तौ तौ ब्रह्म॑णा॒ व्य॑१॒हं क॑ल्पयामि। स्व॒धां पि॒तृभ्यो॑ अ॒जरां कृ॒णोमि॑ दी॒र्घेणायु॑षा॒ समि॒मान्त्सृ॑जामि॥ - शौ.अ. १२.२.३२ *यो नो॑ अ॒ग्निः पि॑तरो हृ॒त्स्व॑१॒न्तरा॑वि॒वेशा॒मृतो॒ मर्त्ये॑षु। मय्य॒हं तं परि॑ गृ॒ह्णामि दे॒वं मा सो अ॒स्मान् द्वि॑क्षत॒ मा व॒यं तम्॥ - शौ.अ. १२.२.३३ *अ॒पा॒वृत्य॒ गार्ह॑पत्यात् क्र॒व्यादा॒ प्रेत॑ दक्षि॒णा। प्रि॒यं पि॒तृभ्य॑ आ॒त्मने॑ ब्र॒ह्मभ्यः॑ कृणुता प्रि॒यम्॥ - शौ.अ. १२.२.३४ *जी॒वाना॒मायुः॒ प्र ति॑र॒ त्वम॑ग्ने पितॄ॒णां लो॒कमपि॑ गच्छन्तु ये मृ॒ताः। सु॒गा॒र्ह॒प॒त्यो वि॒तप॒न्नरा॑तिमुषामु॑षां॒ श्रेय॑सीं धेह्य॒स्मै॥ - शौ.अ. १२.२.४५ *यं वां॑ पि॒ता पच॑ति॒ यं च॑ मा॒ता रि॒प्रान्निर्मु॑क्त्यै॒ शम॑लाच्च वा॒चः। स ओ॑द॒नः श॒तधा॑रः स्व॒र्ग उ॒भे व्याप॒ नभ॑सी महि॒त्वा॥ - शौ.अ. १२.३.५ *दक्षि॑णां॒ दिश॑म॒भि नक्ष॑माणौ प॒र्याव॑र्तेथाम॒भि पात्र॑मे॒तत्। तस्मि॑न् वां य॒मः पि॒तृभिः॑ संविदा॒नः प॒क्वाय॒ शर्म॑ बहु॒लं नि य॑च्छात्॥ - शौ.अ. १२.३.८ *पि॒तेव॑ पु॒त्रान॒भि सं स्व॑जस्व नः शि॒वा नो॒ वाता॑ इ॒व वा॑न्तु॒ भूमौ॑। यमो॑द॒नं पच॑तो दे॒वते॑ इ॒ह तं न॒स्तप॑ उ॒त स॒त्यं च॑ वेत्तु॥ - शौ.अ. १२.३.१२ *ष॒ष्ट्यां श॒रत्सु॑ निधि॒पा अ॒भीच्छा॒त् स्वः प॒क्वेना॒भ्यश्नवातै। उपै॑नं जीवान् पि॒तर॑श्च पु॒त्रा ए॒तं स्व॒र्गं ग॑म॒यान्त॑म॒ग्नेः॥ - शौ.अ. १२.३.३४ *स्व॒धा॒का॒रेण॑ पि॒तृभ्यो॑ य॒ज्ञेन॑ दे॒वता॑भ्यः। दाने॑न राज॒न्यो व॒शाया॑ मा॒तुर्हेडं॒ न ग॑च्छति॥ - शौ.अ. १२.४.३२ *छि॒नत्त्य॑स्य पितृब॒न्धु परा॑ भावयति मातृब॒न्धु॥ - शौ.अ. १२.९.५ *अ॒ष्ट॒धा यु॒क्तो व॑हति॒ वह्नि॑रुग्रः॒ पि॒ता दे॒वानां॑ जनि॒ता म॑ती॒नाम्। ऋ॒तस्य॒ तन्तुं॒ मन॑सा मि॒मानः॒ सर्वा॒ दिशः॑ पवते मात॒रिश्वा॒ तस्य॑ दे॒वस्य॑। क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑॥ - शौ.अ. १३.३.१९ *यदया॑तं शुभस्पती वरे॒यं सू॒र्यामुप॑। विश्वे॑ दे॒वा अनु॒ तद् वा॑मजानन् पु॒त्रः पि॒तर॑मवृणीत पू॒षा॥ - शौ.अ. १४.१.१५ *जी॒वं रु॑दन्ति॒ वि न॑यन्त्यध्व॒रं दी॒र्घामनु॒ प्रसि॑तिं दीध्यु॒र्नरः॑। वा॒मं पि॒तृभ्यो॒ य इ॒दं॑ स॑मीरि॒रे मयः॒ पति॑भ्यो ज॒नये॑ परि॒ष्वजे॑॥(विवाह प्रकरणम्) - शौ.अ. १४.१.४६ *य॒दा गार्ह॑पत्य॒मस॑पर्यै॒त् पूर्व॑म॒ग्निं व॒धूरि॒यम्। अधा॒ सर॑स्वत्यै नारि पि॒तृभ्य॑श्च॒ नम॑स्कुरु॥ - शौ.अ. १४.२.२० *उत् ति॑ष्ठे॒तो वि॑श्वावसो॒ नम॑सेडामहे त्वा। जा॒मिमि॑च्छ पितृ॒षदं॒ न्यक्तां॒ स ते॑ भा॒गो ज॒नुषा॒ तस्य॑ विद्धि॥ - शौ.अ. १४.२.३३ *सं पि॑तरा॒वृत्वि॑ये सृजेथां मा॒ता पि॒ता च॒ रेत॑सो भवाथः। मर्य॑ इव॒ योषा॒मधि॑रोहयैनां प्र॒जां कृ॑ण्वाथामि॒ह पु॑ष्यतं र॒यिम्॥(विवाह प्रकरणम्) - शौ.अ. १४.२.३७ *उ॒श॒तीः क॒न्यला॑ इ॒माः पि॑तृलो॒कात् पतिं॑ य॒तीः। अव॑ दी॒क्षाम॑सृक्षत॒ स्वाहा॑॥ - शौ.अ. १४.२.५२ *अङ्गा॑द॒ङ्गाद् व॒यम॒स्या अप॒ यक्ष्मं॒ नि द॑ध्मसि। तन्मा प्राप॑त् पृथि॒वीं मोत दे॒वान् दिवं॒ मा प्राप॑दु॒र्व॑१॒न्तरि॑क्षम्। अ॒पो मा प्राप॒न्मल॑मे॒तद॑ग्ने य॒मं मा प्राप॑त् पि॒तॄंश्च॒ सर्वा॑न्॥ - शौ.अ. १४.२.६९ *ये पि॒तरो॑ वधू द॒र्शा इमं व॑ह॒तुमाग॑मन्। ते अ॒स्यै व॒ध्वै संप॑त्न्यै प्र॒जाव॒च्छर्म॑ यच्छन्तु॥ - शौ.अ. १४.२.७३ *स सर्वा॑नन्तर्दे॒शाननु॒ व्यचलत्। तं प्र॒जाप॑तिश्च परमे॒ष्ठी च॑ पि॒ता च॑ पिताम॒हश्चा॑नु॒व्यचलन्। प्र॒जापतिश्च॒ वै स प॑रमे॒ष्ठिन॑श्च पि॒तुश्च॑ पिताम॒हस्य॑ च प्रि॒यं धाम॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑॥ - शौ.अ. १५.६.२५ *स म॑हि॒मा सद्रु॑र्भू॒त्वान्तं॑ पृथि॒व्या अ॑गच्छ॒त् स स॑मु॒द्रोऽभवत्। तं प्र॒जाप॑तिश्च परमे॒ष्ठी च॑ पि॒ता च॑ पिताम॒हश्चाप॑श्च श्र॒द्धा च॑ व॒र्षं भू॒त्वानु॒व्यवर्तयन्त। ऐन॒मापो॑ गच्छ॒त्यैनं॑ श्र॒द्धा ग॑च्छ॒त्यैनं॑ व॒र्षं ग॑च्छति॒ य ए॒वं वेद॑॥ - शौ.अ. १५.७.२ *तद् यस्यै॒वं वि॒द्वान् व्रात्य॒ उद्धृ॑तेष्व॒ग्निष्वधि॑श्रितेऽग्निहो॒त्रेऽति॑थिर्गृ॒हाना॒गच्छे॑त्। स्व॒यमे॑नमभ्यु॒देत्य॑ ब्रूया॒द् व्रात्याति॑ सृज हो॒ष्यामीति॑। स चा॑तिसृ॒जज्जु॑हु॒यान्न चा॑तिसृ॒जेन्न जु॑हुयात्। स य ए॒वं वि॒दुषा॒ व्रात्ये॒नाति॑सृष्टो जु॒होति॑। प्र पि॑तृयाणं॒ पन्थां॑ जानाति॒ प्र दे॑व॒यान॑म्॥ - शौ.अ. १५.१२.५ *अथ॒ य ए॒वं वि॒दुषा॒ व्रात्ये॒नान॑तिसृष्टो जु॒होति॑। न पि॑तृ॒याणं॒ पन्थां॑ जानाति॒ न दे॑व॒यान॑म्।आ दे॒वेषु॑ वृश्चते अहु॒तम॑स्य भवति। - शौ.अ. १५.१२.९ *ओ चि॒त् सखा॑यं स॒ख्या व॑वृत्यां ति॒रः पु॒रू चि॑दर्ण॒वं ज॑ग॒न्वान्। पि॒तुर्नपा॑त॒मा द॑धीत वे॒धा अधि॒ क्षमि॑ प्रत॒रं दीध्या॑नः॥ - शौ.अ. १८.१.१ *उदी॑रय पि॒तरा॑ जा॒र आ भग॒मिय॑क्षति हर्य॒तो हृ॒त्त इ॑ष्यति। विव॑क्ति॒ वह्निः॑ स्वप॒स्यते॑ म॒खस्तवि॒ष्यते॒ असुरो॒ वेपते म॒ती॥ - शौ.अ. १८.१.२३ *सर॑स्वतीं पि॒तरो॑ हवन्ते दक्षि॒णा य॒ज्ञम॑भि॒नक्ष॑माणाः। आ॒सद्या॒स्मिन् ब॒र्हिषि॑ मादयध्वमनमी॒वा इ॒ष आ धे॑ह्य॒स्मे॥ - शौ.अ. १८.१.४२ *सर॑स्वति॒ या स॒रथं॑ य॒याथो॒क्थैः स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद॑न्ती। स॒हस्रा॒र्घमि॒डो अत्र॑ भा॒गं रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानाय धेहि॥ - शौ.अ. १८.१.४३ *उदी॑रता॒मव॑र॒ उत परा॑स॒ उन्म॑ध्य॒माः पि॒तरः॑ सो॒म्यासः॑। असुं॒ य ईयु॒र॑वृ॒का ऋ॑त॒ज्ञास्ते नो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु॥ - शौ.अ. १८.१.४४ *आहं पि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॑ अवित्सि॒ नपा॑तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णोः॑। ब॒र्हि॒षदो॒ ये स्व॒धया॑ सु॒तस्य॒ भज॑न्त पि॒त्वस्त इ॒हाग॑मिष्ठाः॥ - शौ.अ. १८.१.४५ *इ॒दं पि॒तृभ्यो॒ नमो॑ अस्त्व॒द्य ये पूर्वा॑सो॒ ये अप॑रास ई॒युः। ये पार्थि॑वे॒ रज॒स्या निष॑त्ता॒ ये वा॑ नू॒नं सु॑वृ॒जना॑सु दि॒क्षु॥ - शौ.अ. १८.१.४६ *मात॑ली क॒व्यैर्य॒मो अङ्गि॑रोभि॒र्बृह॒स्पति॒र्ऋक्व॑भिर्वावृधा॒नः। यांश्च॑ दे॒वा वा॑वृ॒धुर्ये च॑ दे॒वांस्ते नो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु॥ - शौ.अ. १८.१.४७ *य॒मो नो॑ गा॒तुं प्र॑थ॒मो वि॑वेद॒ नैषा गव्यू॑ति॒रप॑भर्त॒वा उ॑। यत्रा॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॒ परे॑ता ए॒ना ज॑ज्ञा॒नाः प॒थ्या॒३॒॑ अनु॒ स्वाः॥ - शौ.अ. १८.१.५० *प्रेहि॒ प्रेहि॑ प॒थिभिः॑ पू॒र्याणै॒र्येना ते॒ पूर्वे पि॒तरः॒ परेताः। उ॒भा राजानौ स्व॒धया॒ मदन्तौ य॒मं पश्यासि॒ वरुणं च दे॒वम्॥ - शौ.अ. १८.१.५४ *अपे॑त॒ वीत वि च॑ सर्प॒तातो॒ऽस्मा ए॒तं पि॒तरो॑ लो॒कम॑क्रन्। अहो॑भिर॒द्भिर॒क्तुभि॒र्व्यक्तं य॒मो द॑दात्व॒सान॑मस्मै॥ - शौ.अ. १८.१.५५ *उ॒शन्त॑स्त्वेधीमह्यु॒शन्तः॒ समि॑धीमहि। उ॒शन्नु॑श॒त आ व॑ह पि॒तॄन् हविषे॒ अत्त॑वे॥ - शौ.अ. १८.१.५६ *द्यु॒मन्त॑स्त्वेधीमहि द्यु॒मन्तः॒ समि॑धीमहि। द्यु॒मान् द्यु॑म॒त आ व॑ह पि॒तॄन् ह॒विषे॒ अत्त॑वे॥ - शौ.अ. १८.१.५७ *अङ्गि॑रसो नः पि॒तरो॒ नव॑ग्वा॒ अथ॑र्वाणो॒ भृग॑वः सो॒म्यासः॑। तेषां॑ व॒यं सु॑म॒तौ य॒ज्ञिया॑ना॒मपि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म॥ - शौ.अ. १८.१.५८ *अङ्गि॑रोभिर्य॒ज्ञियै॒रा ग॑ही॒ह यम॑ वैरू॒पैरि॒ह मा॑दयस्व। विव॑स्वन्तं हुवे॒ यः पि॒ता ते॒ऽस्मिन् ब॒र्हिष्या नि॒षद्य॑॥ - शौ.अ. १८.१.५९ *इ॒मं य॑म प्रस्त॒रमा हि रोहाङ्गि॑रोभिः पि॒तृभिः संविदा॒नः। आ त्वा॒ मन्त्राः कविश॒स्ता वहन्त्वे॒ना राजन ह॒विषो मादयस्व॥ - शौ.अ. १८.१.६० *मैन॑मग्ने॒ वि द॑हो॒ माभि शु॑शुचो॒ मास्य॒ त्वचं॑ चिक्षिपो॒ मा शरी॑रम्। शृ॒तं य॒दा कर॑सि जातवे॒दोऽथे॑मेनं॒ प्र हि॑णुतात् पि॒तॄँरुप॑॥ - शौ.अ. १८.२.४ *य॒दा शृ॒तं कृ॒णवो॑ जातवे॒दोऽथे॒ममे॑नं॒ परि॑ दत्तात् पि॒तृभ्यः॑। य॒दो गच्छा॒त्यसु॑नीतिमे॒तामथ॑ दे॒वानां॑ वश॒नीर्भ॑वाति॥ - शौ.अ. १८.२.५ *अति॑ द्रव॒ श्वानौ॑ सारमे॒यौ च॑तुर॒क्षौ श॒बलौ॑ सा॒धुना॑ प॒था। अधा॑ पि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॒ अपी॑हि य॒मेन॒ ये स॑ध॒मादं॒ मद॑न्ति॥ - शौ.अ. १८.२.११ *ह्वया॑मि ते॒ मन॑सा॒ मन॑ इ॒हेमान् गृ॒हाँ उप॑ जुजुषा॒ण एहि॑। सं ग॑च्छस्व पि॒तृभिः॒ सं य॒मेन॑ स्यो॒नास्त्वा॒ वाता॒ उप॑ वान्तु श॒ग्माः॥ - शौ.अ. १८.२.२१ *उद॑ह्व॒मायु॒रायु॑षे॒ क्रत्वे॒ दक्षा॑य जी॒वसे॑। स्वान् ग॑च्छतु ते॒ मनो॒ अधा॑ पि॒तॄँरुप॑ द्रव॥ - शौ.अ. १८.२.२३ *मा त्वा॑ वृ॒क्षः सं बा॑धिष्ट॒ मा दे॒वी पृ॑थि॒वी म॒ही। लो॒कं पि॒तृषु॑ वि॒त्त्वैध॑स्व य॒मरा॑जसु॥ - शौ.अ. १८.२.२५ *यत् ते॒ अङ्ग॒मति॑हितं परा॒चैर॑पा॒नः प्रा॒णो य उ॑ वा ते॒ परे॑तः। तत् ते॑ सं॒गत्य॑ पि॒तरः॒ सनी॑डा घा॒साद् घा॒सं पुन॒रा वे॑शयन्तु॥ - शौ.अ. १८.२.२६ *मृ॒त्युर्य॒मस्या॑सीद् दू॒तः प्रचे॑ता॒ असू॑न् पि॒तृभ्यो॑ गम॒यां च॑कार॥ - शौ.अ. १८.२.२७ *ये दस्य॑वः पि॒तृषु॒ प्रवि॑ष्टा ज्ञातिमु॒खा अहु॒ताद॒श्चरन्ति। प॒रा॒पुरो नि॒पुरो॒ ये भरन्त्य॒ग्निष्टान॒स्मात् प्र धमाति य॒ज्ञात्॥ - शौ.अ. १८.२.२८ *सं वि॑शन्त्वि॒ह पि॒तरः॒ स्वा नः॑ स्यो॒नं कृ॒ण्वन्तः प्रति॒रन्त आयुः। तेभ्यः शकेम ह॒विषा॒ नक्षमाणा॒ ज्योग् जीवन्तः श॒रदः पुरू॒चीः॥ - शौ.अ. १८.२.२९ *ये निखा॑ता॒ ये परो॑प्ता॒ ये द॒ग्धा ये चोद्धि॑ताः। सर्वां॒स्तान॑ग्न॒ आ व॑ह पि॒तॄन् ह॒विषे॒ अत्त॑वे॥ - शौ.अ. १८.२.३४ *प्रा॒णो अ॑पा॒नो व्या॒न आयु॒श्चक्षु॑र्दृ॒शये॒ सूर्या॑य। अप॑रिपरेण प॒था य॒मरा॑ज्ञः पि॒तॄन् ग॑च्छ॥ - शौ.अ. १८.२.४६ *उ॒द॒न्वती॒ द्यौर॑व॒मा पी॒लुम॒तीति॑ मध्य॒मा। तृ॒तीया॑ ह प्र॒द्यौरिति॒ यस्यां॑ पि॒तर॒ आस॑ते॥ - शौ.अ. १८.२.४८ *ये नः॑ पि॒तुः पि॒तरो॒ ये पि॑ताम॒हा य आ॑विवि॒शुरु॒र्व॑१॒न्तरि॑क्षम्। य आ॑क्षि॒यन्ति॑ पृथि॒वीमु॒त द्यां तेभ्यः॑ पि॒तृभ्यो॒ नम॑सा विधेम॥ - शौ.अ. १८.२.४९ *अ॒भि त्वो॑र्णोमि पृथि॒व्या मा॒तुर्वस्त्रे॑ण भ॒द्रया॑। जी॒वेषु॑ भ॒द्रं तन्मयि॑ स्व॒धा पि॒तृषु॒ सा त्वयि॑॥ - शौ.अ. १८.२.५२ *पू॒षा त्वे॒तश्च्या॑वयतु॒ प्र वि॒द्वानन॑ष्टपशु॒र्भुव॑नस्य गो॒पाः। स त्वै॒तेभ्यः॒ परि॑ ददत् पि॒तृभ्यो॒ऽग्निर्दे॒वेभ्यः॑ सुविद॒त्रिये॑भ्यः॥ - शौ.अ. १८.२.५४ *उत्ति॑ष्ठ प्रेहि॒ प्र द्र॒वौकः॑ कृणुष्व सलि॒ले स॒धस्थे॑। तत्र॒ त्वं पि॒तृभिः॑ संविदा॒नः सं सोमे॑न॒ मद॑स्व॒ सं स्व॒धाभिः॑॥ - शौ.अ. १८.३.८ *वर्च॑सा॒ मां पि॒तरः॑ सो॒म्यासो॒ अञ्ज॑न्तु दे॒वा मधु॑ना घृ॒तेन॑। चक्षु॑षे मा प्रत॒रं ता॒रय॑न्तो ज॒रसे॑ मा ज॒रद॑ष्टिं वर्धन्तु॥ - शौ.अ. १८.३.१० *यद् वो॑ मु॒द्रं पि॑तरः सो॒म्यं च॒ तेनो॑ सचध्वं॒ स्वय॑शसो॒ हि भू॒त। ते अ॑र्वाणः कवय॒ आ शृ॑णोत सुवि॒दत्रा॑ वि॒दथे॑ हू॒यमा॑नाः॥ ये अत्र॑यो॒ अङ्गि॑रसो॒ नव॑ग्वा इ॒ष्टाव॑न्तो राति॒षाचो॒ दधा॑नाः। दक्षि॑णावन्तः सु॒कृतो॒ य उ॒ स्थासद्या॒स्मिन् ब॒र्हिषि॑ मादयध्वम्॥ - शौ.अ. १८.३.१९-२० *अधा॒ यथा॑ नः पि॒तरः॒ परा॑सः प्र॒त्नासो॑ अग्न ऋ॒तमा॑शशा॒नाः। शुचीद॑य॒न् दीध्य॑त उक्थ॒शासः॒ क्षामा॑ भि॒न्दन्तो॑ अरु॒णीरप॑ व्रन्॥ - शौ.अ. १८.३.२१ *त्वम॑ग्न ईडि॒तो जा॑तवे॒दोऽवा॑ड्ढ॒व्यानि॑ सुर॒भीणि॑ कृ॒त्वा। प्रादाः॑ पि॒तृभ्यः॑ स्व॒धया॒ ते अ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वींषि॑॥ आसी॑नासो अरु॒णीना॑मु॒पस्थे॑ र॒यिं ध॑त्त दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य। पु॒त्रेभ्यः॑ पितर॒स्तस्य वस्वः॒ प्र य॑च्छत॒ त इ॒होर्जं॑ दधात॥ अग्नि॑ष्वात्ताः पितर॒ एह ग॑च्छत॒ सदः॑सदः सदत सुप्रणीतयः। अ॒त्तो ह॒वींषि॒ प्रय॑तानि ब॒र्हिषि॑ र॒यिं च॑ नः॒ सर्व॑वीरं दधात॥ - शौ.अ. १८.३.४२-४५ *ये नः॑ पि॒तुः पि॒तरो॒ ये पिता॑म॒हा अ॑नूजहि॒रे सो॑मपी॒थं वसि॑ष्ठाः। तेभि॑र्य॒मः संररा॒णो ह॒वींष्यु॒शन्नु॒शद्भिः॑ प्रतिका॒मम॑त्तु॥ - शौ.अ. १८.३.४६ *उत् ते॑ स्तभ्नामि पृथि॒वीं त्वत् परी॒मं लो॒गं नि॒दध॒न्मो अ॒हं रि॑षम्। ए॒तां स्थूणां॑ पि॒तरो॑ धारयन्ति ते॒ तत्र॑ य॒मः साद॑ना ते कृणोतु॥ - शौ.अ. १८.३.५२ *सं ग॑च्छस्व पि॒तृभिः॒ सं य॒मेने॑ष्टापू॒र्तेन॑ पर॒मे व्योमन्। हि॒त्वाव॒द्यं पुन॒रस्त॒मेहि॒ सं ग॑च्छतां त॒न्वा सु॒वर्चाः॑॥ - शौ.अ. १८.३.५८ *ये नः॑ पि॒तुः पि॒तरो॒ ये पि॑ताम॒हा य आ॑विवि॒शुरु॒र्व॑१॒न्तरि॑क्षम्। तेभ्यः॑ स्व॒राडसु॑नीतिर्नो अ॒द्य य॑थाव॒शं त॒न्वः कल्पयाति॥ - शौ.अ. १८.३.५९ *यो द॒ध्रे अ॒न्तरि॑क्षे॒ न म॒ह्ना पि॑तॄ॒णां क॒विः प्रम॑तिर्मती॒नाम्। तम॑र्चत वि॒श्वमि॑त्रा ह॒विर्भिः॒ स नो॑ य॒मः प्र॑त॒रं जी॒वसे॑ धात्॥ - शौ.अ. १८.३.६३ *इन्द्र॒ क्रतुं॑ न॒ आ भ॑र पि॒ता पु॒त्रेभ्यो॒ यथा॑। शिक्षा॑ णो अ॒स्मिन् पु॑रुहूत॒ याम॑नि जी॒वा ज्योति॑रशीमहि॥ - शौ.अ. १८.३.६७ *ये ते॒ पूर्वे॒ परा॑गता॒ अप॑रे पि॒तर॑श्च॒ ये। तेभ्यो॑ घृतस्य॑ कु॒ल्यैतु श॒तधा॑रा व्युन्द॒ती॥ - शौ.अ. १८.३.७२ *ए॒तदा रो॑ह॒ वय॑ उन्मृजा॒नः स्वा इ॒ह बृ॒हदु॑ दीदयन्ते। अ॒भि प्रेहि॑ मध्य॒तो माप॑ हास्थाः पितॄ॒णां लो॒कं प्र॑थ॒मो यो अत्र॑॥ - शौ.अ. १८.३.७३ *स॒हस्र॑धारं श॒तधा॑र॒मुत्स॒मक्षि॑तं व्य॒च्यमा॑नं सलि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे। ऊर्जं॒ दुहा॑नमनप॒स्फुर॑न्त॒मुपा॑सते पि॒तरः॑ स्व॒धाभिः॑॥ - शौ.अ. १८.४.३६ *पु॒त्रं पौत्र॑मभित॒र्पय॑न्ती॒रापो॒ मधु॑मतीरि॒माः। स्व॒धां पि॒तृभ्यो॑ अ॒मृतं॒ दुहा॑ना॒ आपो॑ दे॒वीरु॒भयां॑स्तर्पयन्तु॥ - शौ.अ. १८.४.३९ *आपो अ॒ग्निं प्र हिणुत पि॒तॄँरुपे॒मं य॒ज्ञं पि॒तरो मे जुषन्ताम्। आसीना॒मूर्ज॒मु॒प ये सचन्ते॒ ते नो र॒यिं सर्ववीरं॒ नि यच्छान्॥ - शौ.अ. १८.४.४० *समि॑न्धते॒ अम॑र्त्यं हव्य॒वाहं॑ घृत॒प्रिय॑म्। स वे॑द॒ निहि॑तान्नि॒धीन् पि॒तॄन् प॑रा॒वतो॑ ग॒तान्॥ - शौ.अ. १८.४.४१ *इ॒दं पूर्व॒मप॑रं नि॒यानं॒ येना॑ ते॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॒ परे॑ताः। पु॒रो॒ग॒वा ये अ॑भि॒शाचो॑ अस्य॒ ते त्वा॑ वहन्ति सु॒कृता॑मु लो॒कम्॥ - शौ.अ. १८.४.४४ *सर॑स्वतीं पि॒तरो॑ हवन्ते दक्षि॒णा य॒ज्ञम॑भि॒नक्ष॑माणाः। आ॒सद्या॒स्मिन् ब॒र्हिषि॑ मादयध्वमनमी॒वा इष॒ आ धे॑ह्य॒स्मे॥ - शौ.अ. १८.४.४६ *सर॑स्वति॒ या स॒रथं॑ य॒याथो॒क्थैः स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद॑न्ती। स॒ह॒स्रा॒र्घमि॒डो अत्र॑ भा॒गं रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानाय धेहि॥ - शौ.अ. १८.४.४७ *पृथि॒वीं त्वा॑ पृथि॒व्यामा वे॑शयामि दे॒वो नो॑ धा॒ता प्र ति॑रा॒त्यायुः॑। परा॑परैता वसु॒विद् वो॑ अ॒स्त्वधा॑ मृ॒ताः पि॒तृषु॒ सं भ॑वन्तु॥ - शौ.अ. १८.४.४८ *आ प्र च्य॑वेथा॒मप॒ तन्मृ॑जेथां॒ यद् वा॑मभि॒भा अत्रो॒चुः। अ॒स्मादेत॑म॒घ्न्यौ तद् वशी॑यो दा॒तुः पि॒तृष्वि॒हभो॑जनौ॒ मम॑॥ - शौ.अ. १८.४.४९ *एयम॑ग॒न् दक्षि॑णा भद्र॒तो नो॑ अ॒नेन॑ द॒त्ता सु॒दुघा॑ वयो॒धाः। यौव॑ने जी॒वानु॑प॒पृञ्च॑ती ज॒रा पि॒तृभ्य॑ उप॒संप॑राणयादि॒मान्॥ - शौ.अ. १८.४.५० *इ॒दं पि॒तृभ्यः॒ प्र भ॑रामि ब॒र्हिर्जी॒वं दे॒वेभ्य॒ उत्त॑रं स्तृणामि। तदा रो॑ह पुरुष॒ मेध्यो॒ भव॒न् प्रति॑ त्वा जानन्तु पि॒तरः॒ परे॑तम्॥ - शौ.अ. १८.४.५१ *एदं ब॒र्हिर॑सदो॒ मेध्यो॑ऽभूः॒ प्रति॑ त्वा जानन्तु पि॒तरः॒ परे॑तम्। य॒था॒प॒रु त॒न्वं१॒ सं भ॑रस्व॒ गात्रा॑णि ते॒ ब्रह्म॑णा कल्पयामि॥ - शौ.अ. १८.४.५२ *इ॒दं हिर॑ण्यं बिभृहि॒ यत् ते॑ पि॒ताबि॑भः पु॒रा। स्व॒र्गं य॒तः पि॒तुर्हस्तं॒ निर्मृ॑ड्ढि॒ दक्षि॑णम्॥ - शौ.अ. १८.४.५६ *यद् वो॑ अ॒ग्निरज॑हा॒देक॒मङ्गं॑ पितृलो॒कं ग॒मयं॑ जा॒तवे॑दाः। तद् व॑ ए॒तत् पुन॒रा प्या॑ययामि सा॒ङ्गाः स्व॒र्गे पि॒तरो॑ मादयध्वम्॥ - शौ.अ. १८.४.६४ *अभू॑द् दू॒तः प्रहि॑तो जा॒तवे॑दाः सा॒यं न्यह्न॑ उप॒वन्द्यो॒ नृभिः॑। प्रादाः॑ पि॒तृभ्यः॑ स्व॒धया॒ ते अ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वींषि॑॥ - शौ.अ. १८.४.६५ *शुम्भ॑न्तां लो॒काः पितृ॒षद॑नाः पितृ॒षद॑ने त्वा लो॒क आ सा॑दयामि॥ - शौ.अ. १८.४.६७ *ये॒३॒॑स्माकं॑ पि॒तर॒स्तेषां॑ ब॒र्हिर॑सि॥ - शौ.अ. १८.४.६८ *अ॒ग्नये॑ कव्य॒वाह॑नाय स्व॒धा नमः॑॥७१॥ सोमा॑य पि॒तृम॑ते स्व॒धा नमः॑॥७२॥ पि॒तृभ्यः॒ सोम॑वद्भ्यः स्व॒धा नमः॑॥७३॥ य॒माय॑ पि॒तृम॑ते स्व॒धा नमः॑॥७४॥ ए॒तत् ते॑ प्रततामह स्व॒धा ये च॒ त्वामनु॑॥७५॥ ए॒तत् ते॑ ततामह स्व॒धा ये च॒ त्वामनु॑॥७६॥ ए॒तत् ते॑ तत स्व॒धा॥७७॥ स्व॒धा पि॒तृभ्यः॑ पृथिवि॒षद्भ्यः॑॥७८॥ स्व॒धा पि॒तृभ्यो॑ अन्तरिक्ष॒सद्भ्यः॑॥७९॥ स्व॒धा पि॒तृभ्यो॑ दिवि॒षद्भ्यः॑॥८०॥ - शौ.अ. १८.४.७१-८० *नमो॑ वः पितर ऊ॒र्जे नमो॑ वः पितरो॒ रसा॑य॥८१॥ नमो॑ वः पितरो॒ भामा॑य॒ नमो॑ वः पितरो म॒न्यवे॑॥८२॥ नमो॑ वः पितरो॒ यद् घो॒रं तस्मै॒ नमो॑ वः पितरो॒ यत् क्रू॒रं तस्मै॑॥८३॥ नमो॑ वः पितरो॒ यच्छि॒वं तस्मै॒ नमो॑ वः पितरो॒ यत् स्यो॒नं तस्मै॑॥८४॥ नमो॑ वः पितरः स्व॒धा वः॑ पितरः॥८५॥ येऽत्र॑ पि॒तरः॑ पि॒तरो॒ येऽत्र॑ यू॒यं स्थ यु॒ष्माँस्तेऽनु॑ यू॒यं तेषां॒ श्रेष्ठा॑ भूयास्थ॥८६॥ य इ॒ह पि॒तरो॑ जी॒वा इ॒ह व॒यं स्मः॑। अ॒स्माँस्तेऽनु॑ व॒यं तेषां॒ श्रेष्ठा॑ भूयास्म॥८७॥ - शौ.अ. १८.४.८१-८७ *यस्ते॑ दे॒वेषु॑ महि॒मा स्व॒र्गो या ते॑ त॒नूः पि॒तृष्वा॑वि॒वेश॑। पुष्टि॒र्या ते॑ मनु॒ष्येषु पप्र॒थेऽग्ने॒ तया॑ र॒यिम॒स्मासु॑ धेहि॥(दे. जातवेदाः) - शौ.अ. १९.३.३ *शं न॑ ऋ॒भवः॑ सु॒कृतः॑ सुहस्ताः॒ शं नो॑ भवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु॥ - शौ.अ. १९.११.१ *जी॒व॒ला नाम॑ ते मा॒ता जीव॒न्तो नाम॑ ते पि॒ता। नद्या॒यं पुरु॑षो रिषत्।(दे. कुष्ठः) – शौ.अ. १९.३९.३ *आ रा॑त्रि॒ पार्थि॑वं॒ रजः॑ पि॒तुर॑प्रायि॒ धाम॑भिः। - शौ.अ. १९.४७.१ *पि॒ता सन्न॑भवत् पु॒त्र ए॑षां॒ तस्मा॒द् वै नान्यत् पर॑मस्ति॒ तेजः॑॥(दे. कालः) – शौ.अ. १९.५३.४ *का॒लो ह॒ सर्व॑स्येश्व॒रो यः पि॒तासी॑त् प्र॒जाप॑तेः॥ - शौ.अ. १९.५३.८ *नैतां वि॑दुः॒ पि॒तरो॒ नोत दे॒वा येषां॒ जल्पि॒श्चर॑त्यन्तरेदम्। त्रि॒ते स्वप्न॑मदधुरा॒प्त्ये नर॒ आदि॑त्यासो॒ वरु॑णे॒नानु॑शिष्टाः॥ - शौ.अ. १९.५६.४ *उ॒रु॒व्यचा॑ ज॒ठर॒ आ वृ॑षस्व पि॒तेव॑ नः शृणुहि हू॒यमा॑नः॥ - शौ.अ. २०.८.२ *अ॒भि श्या॒वं न कृश॑नेभि॒रश्वं॒ नक्ष॑त्रेभिः पि॒तरो॒ द्याम॑पिंशन्। रात्र्यां॒ तमो॒ अद॑धु॒र्ज्योति॒रह॒न् बृह॒स्पति॑र्भि॒नदद्रिं॑ वि॒दद् गाः॥ - शौ.अ. २०.१६.११ *अनु॑ प्र॒त्नस्यौक॑सो हु॒वे तु॑विप्र॒तिं नर॑म्। यं ते॒ पूर्वं॑ पि॒ता हु॑वे॥ - शौ.अ. २०.२६.३ *जा॒तो व्यख्यत् पि॒त्रोरु॒पस्थे॒ भुवो॒ न वे॑द जनि॒तुः पर॑स्य। स्त॒वि॒ष्यमा॑णो॒ नो यो अ॒स्मद् व्र॒ता दे॒वानां॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑॥ - शौ.अ. २०.३४.१६ *तमु॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरो॒ नव॑ग्वाः स॒प्त विप्रा॑सो अ॒भि वा॒जय॑न्तः। न॒क्ष॒द्दा॒भं ततु॑रिं पर्वते॒ष्ठामद्रो॑घवाचं म॒तिभिः॒ शवि॑ष्ठम्॥ - शौ.अ. २०.३६.२ *आयं गौ पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन्मा॒तरं॑ पु॒रः। पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्वः॥ - शौ.अ. २०.४८.४ *तत्त॒दिद॑स्य॒ पौंस्यं॑ गृणीमसि पि॒तेव॒ यस्तवि॑षीं वावृधे शवः॑॥ - शौ.अ. २०.७३.६ *इन्द्र॒ क्रतुं॑ न॒ आ भ॑र पि॒ता पु॒त्रेभ्यो॒ यथा॑। शिक्षा॑ णो अ॒स्मिन् पु॑रुहूत॒ याम॑नि जी॒वा ज्योति॑रशीमहि॥ - शौ.अ. २०.७९.१ *न॒हि त्वद॒न्यन्म॑घवन् न॒ आप्यं॒ वस्यो॒ अस्ति॑ पि॒ता च॒न॥ - शौ.अ. २०.८२.२ *ए॒वा पि॒त्रे वि॒श्वदे॑वाय॒ वृष्णे॑ य॒ज्ञैर्वि॑धेम॒ नम॑सा ह॒विर्भिः॑। - शौ.अ. २०.८८.६ *यो अ॑द्रि॒भित् प्र॑थम॒जा ऋ॒तावा॒ बृह॒स्पति॑राङ्गिर॒सो ह॒विष्मा॑न्। द्वि॒बर्ह॑ज्मा प्राघर्म॒सत् पि॒ता न॒ आ रोद॑सी वृष॒भो रो॑रवीति॥ - शौ.अ. २०.९०.१ *इ॒मां धियं॑ स॒प्तशी॑र्ष्णीं पि॒ता न॑ ऋ॒तप्र॑जातां बृह॒तीम॑विन्दत्। - शौ.अ. २०.९१.१ *अ॒र्भ॒को न कु॑मार॒कोऽधि॑ तिष्ठ॒न्नवं॒ रथ॑म्। स प॑क्षन्महि॒षं मृ॒गं पि॒त्रे मा॒त्रे वि॑भु॒क्रतु॑म्॥ - शौ.अ. २०.९२.१२ *त्वं हि नः॑ पि॒ता व॑सो॒ त्वं मा॒ता श॑तक्रतो ब॒भूवि॑थ। अधा॑ ते सु॒म्नमी॑महे॥ - शौ.अ. २०.१०८.२ *य॒दा कृ॒णोषि॑ नद॒नुं समू॑ह॒स्यादित् पि॒तेव॑ हूयसे॥ - शौ.अ. २०.११४.२ *अ॒हमिद्धि पि॒तुष्परि॑ मे॒धामृ॒तस्य॑ ज॒ग्रभ॑। अ॒हं सूर्य॑ इवाजनि॥ - शौ.अ. २०.११५.१ *यन्नू॒नं धी॒भिर॑श्विना पि॒तुर्योना॑ नि॒षीद॑थः। यद्वा॑ सु॒म्नेभि॑रुक्थ्या॥ - शौ.अ. २०.१४२.६ *वेदिपरिग्रहणम् – सा वै प्राक्प्रवणा स्यात् – प्राची हि देवानां दिक्। अथो उदक्प्रवणा – उदीची हि मनुष्याणां दिक्। दक्षिणतः पुरीषं प्रत्युदूहति -एषा वै (दक्षिणा) दिक् पितॄणाम्। सा यद्दक्षिणाप्रवणा स्यात् – क्षिप्रे ह यजमानोऽमुं लोकमियात् – मा.श. १.२.५.१७ *स्वस्त्ययनजपः – सह पित्रा वैश्वानरेण इति। संवत्सरो वै पिता वैश्वानरः प्रजापतिः – मा.श. १.५.१.१६ *तस्मै (वृत्राय) ह स्म पूर्वाह्णे देवा अशनमभिहरन्ति मध्यन्दिने मनुष्याऽअपराह्णे पितरः – मा.श. १.६.३.१२ *अवदानक्लृप्तिः -- अथ यदेव प्रजामिच्छेत्। तेन पितृभ्य ऋणं जायते तद्ध्येभ्य एतत्करोति यदेषाँँ सन्तताऽव्यवच्छिन्ना प्रजा भवति। - मा.श. १.७.२.४ *अथ यत्र प्रतिपद्यते(यत्र काले होता इडोपहूता इति निगदम् प्रतिपद्यते – सायण भाष्य) – तच्चतुर्धा पुरोडाशं कृत्वा बर्हिषदं करोति। तदत्र पितॄणां भाजनेन। चतस्रो वा अवान्तरदिशः। अवान्तरदिशो वै पितरः। तस्माच्चतुर्धा पुरोडाशं कृत्वा बर्हिषदं करोति। – मा.श. १.८.१.४०, २.६.१.१०, ११ *ऋतुब्राह्मणम् – वसन्तो ग्रीष्मो वर्षाः – ते देवा ऋतवः शरद् हेमन्तः शिशिरः – ते पितरः। य एवापूर्यतेऽर्द्धमासः स देवाः। यो ऽपक्षीयते, स पितरः। अहरेव देवाः। रात्रिः पितरः। पुनरह्नः पूर्वाह्णो देवाः। अपराह्णः पितरः। – मा.श. २.१.३.१ *स यो हैवं विद्वान् ‘देवाः पितरः’ इति ह्वयति – आ हास्य देवा देवहूयं गच्छन्ति, आ पितरः पितृहूयम्। - मा.श. २.१.३.२ *स (सूर्यः) यत्रोदङ्ङावर्त्तते। देवेषु तर्हि भवति देवांस्तर्ह्यभिगोपायत्यथ यत्र दक्षिणावर्त्तते पितृषु तर्हि भवति पितॄंस्तर्ह्यभिगोपायति – मा.श. २.१.३.३ *अपहतपाप्मानो देवाः - - - - अनपहतपाप्मानः पितरः – मा.श. २.१.३.४ *मर्त्याः पितरः – मा.श. २.१.३.४ *पिण्डपितृयज्ञः – ततो देवा यज्ञोपवीतिनो भूत्वा दक्षिणं जान्वाच्योपासीदन्। तानब्रवीत् – यज्ञो वोऽन्नम, अमृतत्वं वः, ऊर्ग्वः, सूर्यो वो ज्योतिः इति। अथैनं पितरः प्राचीनावितिनः सव्यं जान्वाच्योपासीदंस्तान् (प्रजापतिः) अब्रवीन्मासि मासि वो ऽशनँँ स्वधा वः. मनोजवो वः, चन्द्रमा वो ज्योतिः इति। अथैनं मनुष्याः प्रावृता उपस्थं कृत्वोपासीदन्। तानब्रवीत् - सायंप्रातर्वोऽशनम्। प्रजा वः, मृत्युर्वः, अग्निर्वो ज्योतिः इति। – मा.श. २.४.२.२ *तद्वा एतन्मासि मास्येव पितृभ्यो ददतो – यदैवैष न पुरस्तात् न पश्चात् ददृशे – अथैभ्यो ददाति। - मा.श. २.४.२.७ *स वा अपराह्णे ददाति। पूर्वाह्णो वै देवानाम्, मध्यन्दिनो मनुष्याणाम्, अपराह्णः पितॄणाम्। - मा.श. २.४.२.८ *सकृत्फलीकरोति। सकृदु ह्येव पराञ्चः पितरः तस्मात्सकृत्फलीकरोति – मा.श. २.४.२.९, ४.४.२.३ *तं (चरुं?) श्रपयति – तस्मिन्नधिश्रित आज्यं प्रत्यानयति। अग्नौ वै देवेभ्यो जुह्वति, उद्धरन्ति मनुष्येभ्यः, अथैव पितॄणाम्(अधिश्रितावस्थायामेव चरावाज्यमवनेयमिति सायण भाष्यम्)। - मा.श. २.४.२.१० *स वा अग्नये च सोमाय च जुहोति। - - - । अथ यत् सोमाय जुहोति। पितृदेवत्यो वै सोमः - - - । स जुहोति – अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा, सोमाय पितृमते स्वाहा इति। – मा.श. २.४.२.१२, ४.४.२.२ (तु. काठ.सं. ३४.१५, मा.श. ३.२.३.१७) *अथ परस्तादुल्मुकं निदधाति। - - - स निदधाति – ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति। परापुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टान् लोकात्प्रणुदात्यस्मात् इति – मा.श. २.४.२.१५ *अथोदपात्रमादायावनेजयति – असाववनेनिक्ष्व इत्येव यजमानस्य पितरम्। असाववनेनिक्ष्वेति पितामहम्। असाववनेनिक्ष्वेति प्रपितामहम्। - मा.श. २.४.२.१६ *बर्हि स्तरणम् -- अथ सकृदाच्छिन्नान्युपमूलं दिनानि (खण्डितानि- सायण) भवन्ति। अग्रमिव देवानाम्, मध्यमिव मनुष्याणाम्, मूलमिव पितॄणाम्। तस्मादुपमूलं दिनानि भवन्ति। सकृदाच्छिन्नानि भवन्ति। सकृदु ह्येव पराञ्चः पितरः। - मा.श. २.४.२.१७ *पिण्डदाने मन्त्राः – तस्मादु ब्रूयात् – असावेतत्त इत्येव यजमानस्य पित्रे। असावेतत्त इति पितामहाय, असावेतत्त इति प्रपितामहाय। - मा.श. २.४.२.१९ पितृत्व प्राप्त करने का क्रम यह था – प्रथम प्रपितामह, पश्चात् पितामह, तब पिता। इस क्रम का परित्याग करके पिण्डदान में पिता से आरम्भ करते हैं। - सायण भाष्य *तत्र जपति – अत्र पितरो मादयध्वं यथाभागमावृषायध्वम् इति। - - -अथ पराङ् पर्यावर्त्तते। तिर इव वै पितरो मनुष्येभ्यः। तिर इवैतद्भवति। – मा.श. २.४.२.२१, २.६.१.१९, १३.८.३.२ पराङ्मुखः सन् पिण्डाभिमुख्यं विहाय पर्यावर्तेतेत्यर्थः - सायण *अथ(अवनेजन के पश्चात्) नीविमुद्गृह्य नमस्करोति। पितृदेवत्या वै नीविः। - - -यज्ञो वै नमो यज्ञियानेवैनानेतत्करोति। षट् कृत्वो नमस्करोति। षड्वा ऋतवः – मा.श. २.४.२.२४, २.६.१.४२ *गृहान्नः पितरो दत्त इति। गृहाणाँँ ह पितर ईशते – मा.श. २.४.२.२४, तु. मा.श. २.६.१.४२ *साकमेधे पितृयज्ञः -- यानेवैषां तस्मिन्त्संग्रामे(वृत्रासुरयुद्धे) ऽघ्नंस्तान्पितृयज्ञेन समैरयन्त पितरो वै तऽ आसंस्तस्मात्पितृयज्ञो नाम । तद्वसन्तो ग्रीष्मो वर्षाः। एते ते ये व्यजयन्त। शरद्धेमन्तः शिशिरस्तऽउ ते यान् (संग्रामे हतान् पितृसंज्ञान्) पुनः समैरयन्त – मा.श. २.६.१.१ *स पितृभ्यः सोमवद्भ्यः षट्कपालं पुरोडाशं निर्वपति, सोमाय वा पितृमते षड्वा ऋतवः, ऋतवः पितरः, तस्मात् षट्कपालो भवति – मा.श. २.६.१.४ (तु. मै.सं. १.१०.१७) *अथ पितृभ्यो बर्हिषद्भ्योऽन्वाहार्यपचने धानाः कुर्वन्ति। ततोऽर्धाः पिँँषन्त्यर्धा इत्येव धाना अपिष्टा भवन्ति। ता धानाः पितृभ्यो बर्हिषद्भ्यः – मा.श. २.६.१.५ *अथ पितृभ्यो ऽग्निष्वात्तेभ्यः। निवान्यायै दुग्धे सकृदुपमथित एकशलाकया मन्थो भवति – मा.श. २.६.१.६ *तद्ये सोमेनेजानाः, ते पितरः सोमवन्तः। अथ ये दत्तेन पक्वेन लोकं जयन्ति ते पितरो बर्हिषदः। अथ ये ततो नान्यतरच्चन, यानग्निरेव दहन्त्स्वदयति ते पितरोऽग्निष्वात्ताः – मा.श. २.६.१.७ *अथ दक्षिणेनान्वाहार्यपचनं चतुःस्रक्तिं वेदिं करोति। अवान्तरदिशोऽनु स्रक्तीः करोति। चतस्रो वा अवान्तरदिशः। अवान्तरदिशो वै पितरः। - - -सर्वतः पितरः – मा.श. २.६.१.११ *सोमक्रयण : अथ या रोहिणी श्येताक्षी (गौः) सा पितृदेवत्या यामिदं पितृभ्यो घ्नन्ति – मा.श. ३.३.१.१४ *प्राग्वंशात् उत्तरवेद्याम् अग्निप्रणयने उत्तरवेदी प्रोक्षणम् – इन्द्रघोषस्त्वा वसुभिः पुरस्तात्पातु। - -- प्रचेतास्त्वा रुद्रैः पश्चात्पातु। - - - मनोजवास्त्वा पितृभिर्दक्षिणतः पातु। - - -विश्वकर्मा त्वाऽऽदित्यैरुत्तरतः पातु – मा.श. ३.५.२.६ (तु. काठ.सं. २०.११) *औदुम्बरी स्थापनम् – अथ याः प्रोक्षण्यः परिशिष्यन्ते – ताऽअवटेऽवनयति – शुन्धन्तां लोकाः पितृषदनाः इति। पितृदेवत्यो वै कूपः खातः, तमेवैतन्मेध्यं करोति। अथ बर्हींषि प्राचीनाग्राणि चोदीचीनाग्राणि चावस्तृणाति – पितृषदनमसि इति। पितृदेवत्यं वाऽ अस्या एतद्भवति। यन्निखातम्। – मा.श. ३.६.१.१३ *धिष्ण्यस्थापनम् – स यदग्नौ जुहोति – तद्देवेषु जुहोति। - - अथ यत्सदसि भक्षन्ति – तन्मनुष्येषु जुहोति। - - -अथ यद्धविर्धानयोर् नाराशँँसाः सीदन्ति - तत् पितृषु जुहोति – मा.श. ३.६.२.२५ *यूपस्थापनम् -- अथ याः प्रोक्षण्यः परिशिष्यन्ते – ताऽअवटेऽवनयति – शुन्धन्तां लोकाः पितृषदनाः इति। पितृदेवत्यो वै कूपः खातः, तमेवैतन्मेध्यं करोति। अथ बर्हींषि प्राचीनाग्राणि चोदीचीनाग्राणि चावस्तृणाति – पितृषदनमसि इति। पितृदेवत्यं वाऽ अस्या एतद्भवति। यन्निखातम्। – मा.श. ३.७.१.६ *आश्विनग्रहः -- सा (सुकन्या) होवाच यस्मै मां पिताऽदात् नैवाहं तं (पतिम्) जीवन्तँँ हास्यामीति – मा.श. ४.१.५.९ *आग्नीध्राय दक्षिणादानम् – ब्राह्मणमद्य विदेयं पितृमन्तं पैतृमत्यम् इति। यो वै ज्ञातो ज्ञातकुलीनः स पितृमान् पैतृमत्यः – मा.श. ४.३.४.१९ *चरकसौत्रामणी – तं (कुम्भं) शिक्योदुम्। उपर्युपर्याहवनीयं धारयन्ति। सा या परिशिष्टा परिस्रुद्भवति – तामासि़ञ्चति। तां विक्षरन्तीमुपतिष्ठते – पितॄणां सोमवतां तिसृभिर्ऋग्भिः, पितॄणां बर्हिषदां तिसृभिर्ऋग्भिः, पितॄणामग्निष्वात्तानां तिसृभिर्ऋग्भिः। तद् यदेवमुपतिष्ठते। यत्र वै सोम इन्द्रमत्यपवत। स यत् पितॄनगच्छत् - त्रया वै पितरः तेनैवैनमेतत्समर्धयति – मा.श. ५.५.४.२८, १४.१.३.२४ *गार्हपत्याग्निचयनम् – अदाद्यमोऽवसानं पृथिव्याः इति। यमो ह वा अस्या अवसानस्येष्टे। - - अक्रन्निमं पितरो लोकमस्मै इति। क्षत्रं वै यमो विशः पितरः। यस्मा उ वै क्षत्रियो विशा संविदानोऽस्यामवसानं ददाति। तत्सुदत्तम्। तथो हास्मै क्षत्रं यमो विशा पितृभिः संविदानोऽस्यामवसानं ददाति। – मा.श. ७.१.१.४ *पंचमी चितिः। अष्टपुनश्चितीष्टकोपधानम् – अग्ने पथो देवयानान्कृणुध्वम् इति। - -पुनः कृण्वाना पितरा युवाना इति। वाक् च वै मनश्च पितरा युवाना। वाक् च मनश्चैतावग्नी। अन्वातांसीत्त्वयि तन्तुमेतम् इति। योऽसावृषिभिस्तन्तुः ततस्तमेतदाह। – मा.श. ८.६.३.२२ *दर्शपूर्णमासयागे व्रतोपायन मीमांसा -- यदि नाश्नाति पितृदेवत्यो भवति। यद्यु अश्नाति देवान्त्यश्नाति इति। तदारण्यमश्नीयादिति तत्र स्थापयंति।- - - -तदाहुः किमयनमिति। स्वयं हैवैते रात्री अग्निहोत्रं जुहुयात्। स यद्धुत्वा प्राश्नाति, तेनापितृदेवत्यो भवति। आहुतिर्वा एषा। स यदेवैतामात्मन्नाहुतिं जुहोति। तेनो एतेषां मेधानां नाश्नाति। – मा.श. ११.१.७.२ *ज्योतिष्टोमप्रायश्चित्तब्राह्मणम् – अथ यदि नाराशंसेषु सन्नः किंचिदापद्येत। पितृभ्यो नाराशंसेभ्यः स्वाहा इति जुहुयात्। पितरो हि स तर्हि नाराशंसा भवति। अप पाप्मानं हते। – मा.श. १२.६.१.३३ *पितरः सुप्तम् (मनुष्या जागरितम्) – मा.श. १२.९.२.२ *सौत्रामण्यामवभृथः – यद्देवा देवहेडनम् इति - - -यदि दिवा यदि नक्तम् इति। - - -यदि जाग्रत् यदि स्वप्ने इति। मनुष्या वै जागरितं। पितरः सुप्तम्। मनुष्यकिल्बिषाच्चैवैनं पितृकिल्बिषाच्च मुंचति। – मा.श. १२.९.२.२ *पारिप्लवाख्यानब्राह्मणम्, द्वितीयमहः – हवै होतरित्येवाध्वर्युः। यमो वैवस्वतो राजेत्याह तस्य पितरो विशस्तऽ इमऽ आसतऽ इति स्थविरा उपसमेता भवन्ति तानुपदिशति यजूँँषि वेदः सोऽयमिति – मा.श. १३.४.३.६ *पितृमेधः – शवान्नं ह वै तत् श्मशानमित्याचक्षते। परो श्मशा उ हैव नाम पितॄणां अत्तारः ते ह अमुष्मिन् लोकेऽकृतश्मशान्नस्य साधुकृत्यामुपदंभयन्ति। - मा.श. १३.८.१.१ *अयुंगेषु संवत्सरेषु कुर्यात्। अयुंगं हि पितॄणाम्। एकनक्षत्रे। एकनक्षत्रं हि पितॄणाम्। अमावास्यायाम्। अमावास्या वा एकनक्षत्रम्। - मा.श. १३.८.१.३ शरदि कुर्यात्। स्वधा वै शरत्। स्वधा उ वै पितॄणामन्नम् – मा.श. १३.८.१.४(तु. काठ.सं. ३६.१३) *उभे दिशावन्तरेण विदधाति प्राचीं च दक्षिणां चैतस्याँँ हि दिशि पितृलोकस्य द्वारम् – मा.श. १३.८.१.५ *एतद्ध वै पितरो मनुष्यलोकऽआभक्ता भवन्ति यदेषां प्रजा भवति –मा.श. १३.८.१.६ *दक्षिणाप्रवणे कुर्यादित्याहुः। दक्षिणाप्रवणो वै पितृलोकः। तदेनं पितृलोक आभजतीति। न तथा कुर्यात्। आमीवत् ह नाम तत् श्मशानकरणम्। क्षिप्रे ह एषामपरोऽनुप्रैति। - मा.श. १३.८.१.७ *ओषधिलोको वै पितरः – मा.श. १३.८.१.२० *आग्नेयो वा अनड्वान्। अग्निमुखा एव तत्पितृलोकाज्जीवलोकमभ्यायन्ति (पितरः)। अथो अग्निर्वै पथोऽतिवोढा। - - । उद्वयं तमसस्परीत्येतामृचं जपंतो यंति। तत्तमसः पितृलोकादादित्यं ज्योतिरभ्यायंति। – मा.श. १३.८.४.६ *प्रवर्ग्येऽवकाशोपस्थानं ब्राह्मणम् – पिता नोऽसि पिता नो बोधि इति। एष वै पिता य एष (सूर्यः) तपति। एष उ प्रवर्ग्यः। – मा.श. १४.१.४.१५ *मनः पितरः – मा.श. १४.४.३.१३ *कर्मणा पितृलोकः (जय्यः) – मा.श.१४.४.३.२४ *अध इव हि पितृलोकः – मा.श. १४.६.१.१० *स्वधाकारं पितरः (उपजीवन्ति) – मा.श. १४.८.९.१ *प्राच्यां॑ दि॒शि दे॒वा ऋ॒त्विजो॑ मार्जयन्तां॒ दक्षि॑णायां दि॒शि मासाः॑ पि॒तरो॑ मार्जयन्ताम् - - - - – तै.सं. १.६.५.१ *ए॒तद्वै दे॒वानमा॒यनं॒ यदाहव॒नीयो॑ऽन्त॒राग्नी प॑शू॒नां गार्ह॑पत्यो मनु॒ष्या॑णामन्वाहार्य॒पच॑नः पितॄ॒णाम् – तै.सं. १.६.७.१, काठ.सं. ३२.७ *कामिडा॒मुपा॑ह्वथा॒ इति॒ तामुपा॑ह्व॒ इति॑ होवाच॒ या प्रा॒णेन॑ दे॒वान् दा॒धार॑ व्या॒नेन॑ मनु॒ष्या॑नपा॒नेन॑ पि॒तॄन् – तै.सं. १.७.२.१ *साकमेधे महापितृयज्ञः – अक्ष॑न् पि॒तरोऽमी॑मदन्त पि॒तरोऽती॑तृपन्त पि॒तरोऽमी॑मृजन्त पि॒त॑रः। परे॑त पितरः सोम्या गम्भी॒रैः प॒थिभिः॑ पू॒र्व्यैः। अथा॑ पि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॒ँ अपी॑त य॒मेन॒ ये स॑ध॒मादं मद॑न्ति॥ मनो॒ न्वा हु वामहे नाराशँ॒ँसेन॒ स्तोमे न पितॄ॒णां च॒ मन्म भिः॥ - - -पुन॑र्नः पि॒तरो॒ मनो॒ ददा॑तु॒ दैव्यो॒ जनः॑। जी॒वं व्रातँ॑ँ सचेमहि। – तै.सं. १.८.५.२, काठ.सं. ९.६, तु. मै.सं. १.१०.३ व्रातं – संवत्सरसंघातरूपं (सायण भाष्य) *सौत्रामणी -- सोम॑प्रतीकाः पितरस्तृप्णुत – तै.सं. १.८.२१.२ कल्पः – दक्षिणेऽऽग्नौ शतातृण्णां स्थालीं प्रबद्धां धारयति। तस्या बिल उदीचीनदशं पवित्रं वितत्य यन्मे मनः परागतमिति तस्मिञ्शतमानं हिरण्यं निधाय सोमप्रतीकाः पितरस्तृप्णुतेति तस्मिन् सुराशेषमानयति। सोमप्रतीकाः सोमप्रमुखाः। - सायण भाष्य *अग्निरायुष्मान्त्स वनस्पतिभिरायुष्मान् - - -सोम आयुष्मान्त्स ओषधीभिर्यज्ञ आयुष्मान्त्स दक्षिणाभिः - - - पितर आयुष्मन्तस्ते स्वधयायुष्मन्तः – तै.सं. २.३.१०.४ *अमावास्यायां सांनाय्यादियागः – इन्द्रो॑ वृ॒त्रँँ हत्वा परां॑ परा॒वत॑मगच्छ॒दपा॑राध॒मिति॒ मन्य॑मान॒स्तं दे॒वताः॒ प्रैष॑मैच्छ॒न्त्सो॑ऽब्रवीत् प्र॒जाप॑ति॒र्यः प्र॑थ॒मो॑ऽनुवि॒न्दति॒ तस्य॑ प्रथ॒मं भा॑ग॒धेय॒मिति॒ तं पि॒तरोऽन्व॑विन्द॒न् तस्मा॑त् पि॒तृभ्यः॑ पूर्वे॒द्युः क्रि॑यते – तै.सं. २.५.३.६ *भू॒तानि॒ क्षुध॑मघ्नन्त्स॒द्यो म॑नु॒ष्या॑ अर्धमा॒से दे॒वा मा॒सि पितरः॑ संवत्स॒रे वन॒स्पत॑यः - - - - तै.सं. २.५.६.६ *त्रयो॒ वा अ॒ग्नयो॑ हव्य॒वाह॑नो दे॒वानां॑ कव्य॒वाह॑नः पितृ॒णाँँ स॒हर॑क्षा॒ असु॑राणां॒ – तै.सं. २.५.८.६ *तस्मा॑त् प॒रस्ता॑द॒र्वाञ्चो॑ मनु॒ष्या॑न् पि॒तरोऽनु॒ प्र पिप॑ते – तै.सं. २.५.८.७ प्र पिपते – प्रकर्षेण पिण्डभागितया अनुक्रमेण रक्षन्ति – भट्टभास्कर भाष्य *मनु॒ष्या॑ वा ई॒डेन्याः॑ पि॒तरो॑ नम॒स्याः॑ दे॒वा य॒ज्ञिया॑ – तै.सं. २.५.९.६, मा.श. १.५.२.३ *निवी॑तं मनु॒ष्या॑णां प्राचीनावी॒तं पि॑तृ॒णामुप॑वीतं दे॒वाना॒म् – तै.सं. २.५.११.१ *पिता वै प्रयाजाः - तै.सं. २.६.१.६ *आज्यभागौ -- देवलो॒कं वा अ॒ग्निना॒ यज॑मा॒नोऽनु॑ पश्यति पितृलो॒कँँ सोमे॑न () – तै.सं. २.६.२.१ *वेदिः – पितृदेव॒त्याऽति॑खा॒ता इय॑तीं खनति प्र॒जाप॑तिना यज्ञमु॒खेन॒ संमि॑ताम् – तै.सं. २.६.४.२ *पितृयज्ञस्य हौत्रम् – उ॒शन्त॑स्त्वा हवामह उ॒शन्तः॒ समि॑धीमहि। उ॒शन्नु॑श॒त आ व॑ह पि॒तॄन् ह॒विषे॒ अत्त॑वे॥ – तै.सं. २.६.१२.१ *त्वया॒ हि नः॑ पि॒तरः॑ सोम॒ पूर्वे॒ कर्मा॑णि च॒क्रुः प॑वमान॒ धीराः॑ – तै.सं. २.६.१२.१, मै.सं. ४.१०.६ *त्वँँ सो॑म पि॒तृभिः॑ संविदा॒नोऽनु॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ त॑तन्थ – तै.सं. २.६.१२.२, मै.सं. ४.१०.६ *इदं पि॒तृभ्यो॒ नमो॑ अस्त्व॒द्य ये पूर्वा॑सो॒ य उप॑रास ई॒युः। ये पार्थि॑वे॒ रज॒स्या निष॑त्ता॒ ये वा॑ नू॒नँँ सु॑वृ॒जना॑सु वि॒क्षु॥ - तै.सं. २.६.१२.४ *इ॒मं य॑म प्रस्त॒रमा हि सीदाङ्गि॑रोभिः पि॒तृभिः॑ संविदा॒नः – तै.सं. २.६.१२.६, मै.सं. ४.१४.१६ *अङ्गि॑रसो नः पि॒तरो॒ नव॑ग्वा॒ अथ॑र्वाणो॒ भृग॑वः सो॒म्यासः॑। - तै.सं. २.६.१२.६ *साकमेधान् पितृयज्ञम् (देवा अकुर्वत) – तै.सं. ३.२.२.३, मै.सं. ३.६.१० *नमो॑ वः पितरो॒ रसा॑य॒ (वसन्ताय), नमो॑ वः पितरः॒ शुष्मा॑य॒(ग्रीष्माय), नमो॑ वः पितरो जी॒वाय॒ (वर्षाभ्यः), नमो॑ वः पितरः स्व॒धायै॒ (शरदे), नमो॑ वः पितरो घो॒राय॒(हेमन्ताय), नमो॑ वः पितरो म॒न्यवे॒ (शिशिराय)। षट्कृत्वो नमस्करोति, षड् वा ऋतवः। ऋतवः पितरः। - तै.सं. ३.२.५.५-६, तु. वा.सं. २.३२ *भूतमसि भव्यं नाम पितृणामधिपत्येऽपामोषधीनां गर्भं धा – तै.सं. ३.३.५.१ *सा (जुहूः) नो ददातु श्रवणं पितृणाम् – तै.सं. ३.३.११.५-६ *तन्तुरसि प्रजाभ्यस्त्वा प्रजा जिन्व इत्याह पितॄनेव प्रजा अनुसंतनोति – तै.सं. ३.५.२.४ *नवभिरस्तुवत, पितरोऽसृज्यन्तादितिरधिपत्न्यासीत् – तै.सं. ४.३.१०.१, काठ.सं. १७.५, तु. मै.सं. २.८.६ *ओजोऽसि पितृभ्यस्त्वा पितॄञ्जिन्व – तै.सं. ४.४.१.२, काठ.सं. १७.७ *पितृणां नाराशंसः (भक्षितशेषः सोमः) – तै.सं. ४.४.९.१-२ *मघा नक्षत्रं, पितरो देवता – तै.सं. ४.४.१०.१, मै.सं. २.१३.२० *विचृतौ नक्षत्रं पितरो देवता – तै.सं. ४.४.१०.२ *उग्रा च भीमा चि पितॄणां यमस्येन्द्रस्य – तै.सं. ४.४.११.२, काठ.सं. २२.५ *यद्दक्षिणा (पशून् उत्सृजेत्) पितृभ्यो निधुवेत् – तै.सं. ५.२.५.३ *ओज इति पितॄन् (असृजत) – तै.सं. ५.३.६.१ *श्मशानचितं चिन्वीत यः कामयेत पितृलोक ऋध्नुयामिति – तै.सं. ५.४.११.३, काठ.सं. २१.४ (तु. मै.सं. ३.४.७) *सलिलो निलिम्पा नाम स्थ तेषां वो दक्षिणा गृहाः पितरो व इषवः – तै.सं. ५.५.१०.३-४ *मनसे त्वेत्याह, पितृभ्य एवैतेन करोति – तै.सं. ६.४.३.१ *उपरसंमितां मिनुयात् पितृलोककामस्य – तै.सं. ६.६.४.१ *(अग्निहोत्रे) यदि पूर्वस्याम् आहुतौ हुतायाम अङ्गारा अनुगच्छेयुः क्वोत्तरां जुहुयाद् इति। - - - - -स यदि तस्यां न तिष्ठेद् धिरण्यम् अभिजुहुयात्। अग्नेर् वा एतद् रेतो यद् धिरण्यम्। य उ पिता स पुत्रः। – जै.ब्रा. १.५६ *एत असृग्रम् इन्दवः इति बहूनां संयजमानानां प्रतिपदं कुर्यात्। - - -प्रजापतिर् यत् प्रजा असृजत ता एनयैव प्रतिपदासृजत। एते इत्य् एव देवान् असृजत असृग्रम् इति मनुष्यान् इन्दव इति पितॄन् – जै.ब्रा. १.९४, तां.ब्रा. ६.९.१५, १२.१.४ *(यदि दीक्षितः प्रमीयेत) तद् अस्थानि निधाय मार्जालीये स्तुवीरन्। अर्बुदस्यर्ग्भिस् स्तुवते। अर्बुदो वै सर्पः। एताभिर् मृतां त्वचम् अपाहत। - -- -तिसृषु स्तुवन्ति। तृतीयो वा इतः पितृलोकः। पितृलोकम् एवैनं गमयन्ति।- - -यामं साम भवति।- - - – जै.ब्रा. १.३४५ *महाव्रतम् : तद् आहुस् तम् ईं हिन्वन्त्य् अग्रुव इत्य् एवैतस्याह्नः प्रतिपत् कार्येति। तम् अर्केभिस् तं सामभिर् इति शीर्ष्णस्, तद् इद् आसु भुवनेषु ज्येष्ठम् इत्य् आत्मनः। तत् तद् इतीव वा एतेनाह्ना चरन्ति। ततो ह वै प्रजापतिः। ततो ह वा एष सर्वासां देवतानाम्। तत् पितैतद् अहः, प्रजेतराणि। स यथा पुत्रः पितरमागत्य तत ततेति ह्वयेत् तादृक् तत्। – जै.ब्रा. २.९ *सङ्गमं पितॄणाम् (आदित्यः आदत्त) – जै.ब्रा. २.२६ *तानि वा एतानि दीक्षमाणाद् उत्क्रामन्त्य् अग्निहोत्रं दर्शपूर्णमासौ चातुर्मास्यानि पशुबन्धः पितृयज्ञो गृहमेधो ब्रह्मौदनो मिथुनम्। - - - - यदुपासनान्युपास्यन्ति, तेन पितृयज्ञः – जै.ब्रा. २.३८ *अथो यथा पिता मातैवं बृहद्रथन्तरे यथा पुत्रा एवं पृष्ठानि। यद् वै पुत्रो ऽतिपादयति पिता वै तस्य शमयिता पिता निषेद्धा। - - -अथो यथा पितरौ पुत्रान् अभितः परिशय्यातां तादृक् तद् यद् बृहद्रथन्तरं अभितो भवतो, मध्ये पृष्ठानि। – जै.ब्रा. २.१८८ *गवामयन सत्र दीक्षा के स्वरूप का कथन : न ह वा एते ऽर्वाञ्चो न पराञ्चः। तिर्यञ्चो ह वा एते। नो ह वा असावादित्योऽर्वाङ् न पराङ् तिर्यङ् उ ह वा एष। षड् वा एष मासो दक्षिणैति षड् उदङ्। यान् दक्षिणैति ते पितृदेवत्या यानुदङ् ते देवदेवत्याः – जै.ब्रा. २.३७२ *गवामयन के मध्यकाल में विषुवान् अह के परितः तीन-तीन स्वरसाम अहों का संदर्भ : सप्तदशा स्वरसामानो भवन्त्य्, एकविंशो विषुवान्। प्रजापतिर् वै सप्तदशो, ऽसाव् आदित्य एकविंशः। पित्रैव तत् पुत्रं पर्यूहन्ति। पिता हि पुत्राय कन्तमः, पुत्रो हि पित्रे कन्तमः – जै.ब्रा. २.३८६ *वर्ष्म हि पिता। अथो उत्क्रान्तिर् एव। पिता हि पुत्राच्छ्रेयान् – जै.ब्रा. २.३८७ *तस्मान् मासैश् चर्तुभिश् च संवत्सरम् आचक्षते, संवत्सरेणर्तूंश् च मासांश् च। तस्मात् पुत्रेण पितरमाचक्षते, पित्रा पुत्रान् – जै.ब्रा. ३.३ *अपराह्ने पितॄणाम् (समित्यां देवल आस) – जै.ब्रा. ३.२७१ * अथासितं (साम : परि त्यं हर्यतं इति)। स ह (असितो देवलः) पूर्वाह्ण एव देवानां समित्यामास, मध्यन्दिने मनुष्याणां द्रुपदस्य वार्द्ध्रविष्णस्य, अपराह्णे पितॄणाम्। – जै.ब्रा. ३.२७१ *स्वरान्तेन वै त्रियहेण प्रजापतिर्देवानसृजत, निधनान्तेन पितॄन्, इळान्तेन मनुष्यान्। - - -अथ यन् निधनान्तेन पितॄन् असृजत तस्माद् उ ते निधनसंस्थाः। – जै.ब्रा. ३.३११ *विष्टारपंक्तिमभ्यक्रन्दत्। ततः पितॄनसृजत यममुखान् – जै.ब्रा. ३.३८१ *दक्षिणया दिशा मासाः पितरो मार्जयन्ताम् – मै.सं. १.४.२, काठ.सं. ५.५ *नैकमेकं (यज्ञायुधं प्रहृत्यम्) पितृदेवत्यं तत् – मै.सं. १.४.१० *दक्षिणतो निमार्ष्ट्योधीश्च तेन पितॄँँश्च प्रीणाति – मै.सं. १.८.५ *पिता नातिचरितवै – मै.सं. १.१०.१०, काठ.सं. ३६.५ *अन्तर्हिता वा अमुष्मादादित्यात् पितरोऽथो अन्तर्हिता हि देवेभ्यश्च मनुष्येभ्यश्च पितरः – मै.सं. १.१०.१७, काठ.सं. ३६.१२, काठ.संक. ५८:६, ५९:१ *उपमूलं बर्हिर्दाति, तेन पितृणां यदृते मूलं तेन देवानाम् – मै.सं. १.१०.१७ *एकयोपमन्थति, एका हि पितृणाम्, इक्षुशलाकयोपमन्थति, सा हि पितृणाम् – मै.सं. १.१०.१७ *अभिवान्याया गोर्दुग्धे (मन्थः) स्यात्, सा हि पितृणाम् – मै.सं. १.१०.१७ *न वै धानाभिर्न पुरोडाशेन पितृयज्ञो, यदेष मन्थस्तेन पितृयज्ञः – मै.सं. १.१०.१७, काठ.सं. ३६.११ *तृतीये हि लोके पितरः – मै.सं. १.१०.१८, २.३.९, काठ.सं. १२.११, ३६.१२, तां.ब्रा. ९.८.५ (तु. तै.ब्रा. १.३.१०.५ १.६.८.७) *उशन्तो हि पितरः – मै.सं. १.१०.१८, काठ.सं. ३६.१२ *सोमो वै पितृणां देवता, पितृदेवत्यः सोमः, यत् सोमं पितृमन्तं यजति, सोमपांस्तत् पितॄन् यजति –मै.सं. १.१०.१८ *सर्वासु हि दिक्षु पितरः – मै.सं. १.१०.१८, काठ.सं. ३६.१२ *अमुं वा एते लोकं निगच्छन्ति ये पितृयज्ञेन चरन्ति – मै.सं. १.१०.१९ *आ मागन्त पितरो विश्वरूपाः – मै.सं. १.११.३ *ओजसा पितृभ्यः पितॄन् जिन्व – मै.सं. २.८.८ *या रोहिणी कृष्णाक्षी कृष्णवाला कृष्णशफा (गौः) सा पितृदेवत्या – मै.सं. ३.७.४ *पितृदेवत्यं वै निखातम् – मै.सं. ३.८.९ *यदप्तुमत्या (जुहोति) पितृभ्यस्तेन (आह्रियते) – मै.सं. ३.९.१ *यन्निखातं तत्पितृणाम् – मै.सं. ३.९.४ *यद् दक्षिणत उपसाद्यते पितृलोकं तेन (अभिजयति) – मै.सं. ३.९.५ *प्रभूः पित्रा (असि) – मै.सं. ३.१२.४ *आखुः कशो मान्थालवस्ते पितॄणाम् – मै.सं. ३.१४.१९ *इलान्दे िति पितरः (गामाह्वयन्), तेभ्योऽतिष्ठत – मै.सं. ४.२.१ *सो ऽसुरान् (प्रजापतिः) सृष्ट्वा पितेवामन्यत। तदनु पितॄनसृजत तत्पितॄणां पितृत्वम् – मै.सं. ४.२.१, तै.ब्रा. २.३.८.२ *अथ पितरो (गाम्) ऽदुह्र रजतेन पात्रेण स्वधाम् – मै.सं. ४.२.१ *यज्ज्योत्स्नायां पश्यामस््तत् पितॄणां चक्षुषा पश्यामश्चन्द्रमा वै पितॄणां चक्षुः – मै.सं. ४.२.१ *यद्दक्षिणा प्रवर्तयेत् पितृलोक एना निधुवेत् – मै.सं. ४.५.४ *पितॄणामनुस्तरणी (यत्सौम्यः) तस्मात् पितृमत्या यजति – मै.सं. ४.७.२ *पितरस्त्वा यमराजानः पितृभिर्दक्षिणतो रोचयन्तु – मै.सं. ४.९.५ *यं कामयेत पितृलोक ऋध्नुयादिति, तस्योपरसंमितां मिनुयात् – मै.सं. ४.७.९ *यमाय त्वा पितृमतेऽङ्गिरस्वते स्वाहा – मै.सं. ४.९.८ *पितृभ्यो घर्मपेभ्यः। स्वाहा। - मै.सं. ४.९.९ *उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु- मै.सं. ४.१०.६ वाजपेयः -- इन्द्रो वृत्रं हत्वा। असुरान्पराभाव्य। सो अमावास्यां प्रत्यागच्छत्। ते पितरः पूर्वेद्युरागच्छन्। पितॄन्यज्ञो अगच्छत्। तं देवाः पुनरयाचन्त। तमेभ्यो न पुनरददुः। ते अब्रुवन्वरं वृणामहै। अथ वः पुनर्दास्यामः। अस्मभ्यमेव पूर्वेद्युः क्रियाता इति। तमेभ्यः पुनरददुः। तस्मात्पितृभ्य पूर्वेद्युः क्रियते। यत्पितॄभ्यः पूर्वेद्युः करोति। पितृभ्य एव तद्यज्ञं निष्क्रीय यजमानः प्रतनुते। - तै.ब्रा. १.३.१०.१ सोमाय पितृपीताय स्वधा नम इत्याह। पितुरेवाधि सोमपीथमवरुन्धे। न हि पिता प्रमीयमाण आहैष सोमपीथ इति। इन्द्रियं वै सोमपीथः। इन्द्रियमेव सोमपीथमवरुन्धे। तेनेन्द्रियेण द्वितीयां जायामभ्यश्नुते। - तै.ब्रा. १.३.१०.२ *अग्नये कव्यवाहनाय स्वधा नम इत्याह। य एव पितॄणामग्निः। तं प्रीणाति – तै.ब्रा. १.३.१०.३ वाजपेय ब्राह्मणे पिण्डपितृयज्ञः :- त्रिर्निदधाति। षट् संपद्यन्ते। षड् वा ऋतवः। ऋतूनेव प्रीणाति। तूष्णीं मेक्षणमादधाति। अस्ति वा हि षष्ठ ऋतुर्न वा। देवान्वै पितृन्प्रीतान्। मनुष्याः पितरोऽनु प्रपिपते। तिस्र आहुतीर्जुहोति। त्रिर्निदधाति। षट् संपद्यन्ते। षड् वा ऋतवः। ऋतूनेव देवान्पितॄन्प्रीणाति। तान्प्रीतान्। मनुष्याः पितरोऽनु प्रपिपते। - तै.ब्रा. १.३.१०.३(तु. तै.सं. ५.४.११.४, काठ.संक. ६९:१) *सकृदाच्छिन्नं बर्हिर्भवति। सकृदिव हि पितरः। - तै.ब्रा. १.३.१०.५ पिण्डानामधस्ताद् यद्बर्हिरास्तीर्यते तदेकप्रयत्नेनैव च्छेदनीय्। - सायण भाष्य *ओष्मणो व्यावृत उपास्ते। ऊष्मभागा हि पितरः – तै.ब्रा. १.३.१०.६ औष्ण्यवशात्पिण्डेषु यो अयमूष्मा निर्गच्छति तस्य यावदुपरमो अव्यावृतस्तदुपरमपर्यन्तं तथैव स्थित्वा सेवेत। पितॄणामूष्मभागित्वेन तच्छान्तिपर्यन्तं तद्भोजनकालत्वात्। - सायण भाष्य *वीरं वा वै पितरः प्रयन्तो हरन्ति। वीरं वा ददति। दशां छिनत्ति। हरणभागा हि पितरः। पितॄनेव निरवदयते। उत्तर आयुषि लोम छिन्दीत। पितॄणां ह्येतर्हि नेदीयः – तै.ब्रा. १.३.१०.६ देवा अपश्यं चमसं घृतस्य पूर्णं स्वधाम्। तमुपोदतिष्ठन्तमजुहवुः। तेनार्धमास ऊर्जमवारुन्धत। तस्मादर्धमासे देवा इज्यन्ते। पितरो अपश्यं चमसं घृतस्य पूर्णं स्वधाम्। तमुपोदतिष्ठन्तमजुहवुः। तेन मास्यूर्जमवारुन्धत। तस्मान्मासि पितृभ्यः क्रियते। - - - - - - - - -- तै.ब्रा. १.४.९.१ यद्यजते। यामेव देवा ऊर्जमवारुन्धत। तां तेनावरुन्धे। यत्पितृभ्यः करोति। यामेव पितर ऊर्जमवारुन्धत। तां तेनावरुन्धे। यदावसथे अन्नं हरन्ति। यामेव मनुष्या ऊर्जमवारुन्धत। तां तेनावरुन्धे। यद्दक्षिणां ददाति। यामेव पशव - - - - -तै.ब्रा. १.४.९.४ *यदृतवः पितरः प्रजापतिं पितरं पितृयज्ञेनायजन्त तत्पितृयज्ञस्य पितृयज्ञत्वम् – तै.ब्रा. १.४.१०.८ *पितॄणां मघाः (नक्षत्रम्) – तै.ब्रा. १.५.१.२, ३.१.१.६ *संवत्सरो वै सोमः पितृमान् – तै.ब्रा. १.६.८.२, १.६.९.५ *मासा वै पितरो बर्हिषदः – तै.ब्रा. १.६.८.३, ३.३.६.४ *अर्धमासा वै पितरोऽग्निष्वात्ताः। - - -यत्पूर्णम्। तन्मनुष्याणाम्। उपर्यर्धो देवानाम्। अर्धः पितृणाम्। अर्ध उपमन्थति। अर्धो हि पितृणाम्। एकयोपमन्थति। एका हि पितृणाम्। दक्षिणोपमन्थति। दक्षिणावृद्धि पितृणाम्। अनारभ्योपमन्थति। तद्धि पितॄन्गच्छति। – तै.ब्रा. १.६.८.३ *इमां दिशं वेदिमुद्धन्ति। उभये हि देवाश्च पितरश्चेज्यन्ते। चतुःस्रक्तिर्भवति। सर्वा ह्यनुदिशः पितरः। अखाता भवति। खाता हि देवानाम्। - तै.ब्रा. १.६.८.५ *अन्तर्हितो हि पितृलोको मनुष्यलोकात् – तै.ब्रा. १.६.८.६ *स्वधाकारो हि पितॄणाम् – तै.ब्रा. १.६.९.५, ३.३.६.४ (तु. मै.सं. १.१०.१८, ३.९.१) *राजसूये पितृयज्ञः – आ स्वधेत्याश्रावयति। अस्तु स्वधेति प्रत्याश्रावयति। स्वधा नम इति वषट्करोति। स्वधाकारो हि पितृणाम्। सोममग्रे यजति। सोमप्रयाजा हि पितरः – तै.ब्रा. १.६.९.५ *सोमं पितृमन्तं यजति। संवत्सरो वै सोमः पितृमान्। - तै.ब्रा. १.६.९.५ *ये वै यज्वानः, ते पितरो बर्हिषदः – तै.ब्रा. १.६.९.६ *ये वा अयज्वानो गृहमेधिनः। ते पितरोऽग्निष्वात्ताः – तै.ब्रा. १.६.९.६ *अग्निं कव्यवाहनं यजति। य एव पितृणामग्निः। तमेव तद्यजति। अथो यथा अग्निं स्विष्टकृतं यजति। तादृगेव तत्। - तै.ब्रा. १.६.९.६ *ह्रीका हि पितरः – तै.ब्रा. १.६.९.७ *सामि पितृभ्यः क्रियते – तै.ब्रा. २.५.६.६?, १.४.९.१? *तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः – तै.ब्रा. २.७.१६.३, २.८.६.५, ३.७.५.४-५, ३.७.६.१५ *असौ (द्यौः) पिता – तै.ब्रा. ३.८.९.१, मा.श. १३.१.६.१ *एते असृग्रमिन्दव इति बहुभ्यः प्रतिपदं कुर्य्यात्।- - -एत इति वै प्रजापतिर्द्देवानसृजतासृग्रमिति मनुष्यानिन्दव इति पितॄंस्तिरः पवित्र इति ग्रहानाशव इति स्तोत्रं विश्वानीति शस्त्रमभि सौभगेत्यन्याः प्रजाः। - - - - इन्दव इव हि पितरः। मन इव । - तां.ब्रा. ६.९.१९, २० *अग्निहोत्रब्राह्मणम् : यन्निमार्ष्टि तत्पितॄणाम् – काठ.सं. ६.५ *श्येतश्श्येताक्षश्श्येतग्रीवस्ते पितृदेवत्याः – काठ.सं. ९.१ *उत्सीदनम् : सोमाय पितृमत आज्यं पितृभ्यो बर्हिषद्भ्यष्षटकपालः पुरोडाशः पितृभ्योऽग्निष्वात्तेभ्यो धानाः अग्नये कव्यवाहनाय मन्थ एतत् ते तत ये च त्वानु – काठ.सं. ९.६, कपि.क.सं. ८.९ *ब्रह्म वै बृहस्पतिर्ब्रह्म ब्राह्मणस्य पिता पिता पुत्रस्येशे – काठ.सं. ११.४ *मारुतम् : चतस्रः पित्र्यास्तासां तिसृभिः प्रचरन्ति, न्येकां दधति - - - -या चतुर्थी तां सँस्थितेऽप्सु जुहोति सृजा वृष्टिं दिव आद्भिस्समुद्रं पृण इति – काठ.सं. ११.१० *अप्रतिरथम् : यत् प्राङ् पर्यावर्तेत देवविशा मुह्येत् यद्दक्षिणा (पर्यावर्तेत) पितृदेवत्यस्यात् – काठ.सं. २१.१० *ऋतव एतं दक्षिणा पर्यहरन्, पितर ऋतवः – काठ.सं. २१.१२ *दीक्षितम् : वासः परिधत्तेऽग्नेस्तूषः पितॄणां नीविः - - - - - – काठ.सं. २३.१ *यज्ञो वै देवेष्वासीद् दक्षिणा पितृषु, स यज्ञो दक्षिणामभ्यकामयत तं पितरोऽब्रुवन् देवेषु नो भागधेयमिच्छेति तेऽब्रुवँस्तृतीयसवनभागा आसन्निति तस्मात् पितृभ्यस्तृतीयसवनं क्रियते – काठ.सं. २३.४, कपि.क.सं. ३६.१ *चातुर्मास्यानि -- वैश्वदेवं प्रातस्सवनमकुर्वत वरुणप्रघासान्माध्यन्दिनँ सवनँ साकमेधाँस्तृतीयसवनं तृतीयसवने पितृयज्ञमवाकल्पयन् तृतीयसवने त्र्यम्बकान् – काठ.सं. २३.७, कपि.क.सं. ३६.४ *यदि तृतीयसवने (स्कन्देत्), पितॄञ्जनमगन्यज्ञः - - - इत्यनुमन्त्रयेत – काठ.सं. २५.७ *जुषाणो अप्तुरिति पितॄनेव वरुणपाशान्मुञ्चति – काठ.सं. २६.२ *उर्वश्यस्यायुरसि पुरूरवा असीति माता वा उर्वश्यायुर्गर्भः पिता पुरूरवा रेतो घृतं यद् घृतेनारणी समनक्ति मिथुन एव रेतो दधाति – काठ.सं. २६.७, कपि.क.सं. ४१.५ *यो वै श्रोत्रिय आर्षेयस्स पितृमान् पैतृमत्यः - - - - यां ब्राह्मणायाश्रोत्रियाय ददाति मरीचयस्तया प्रथन्ते– काठ.सं. २८.४ *बृहदुक्षे नम इति बृहद्धि देवानां नमः पितॄणाम् उक्थभागा वै पितरोऽस्तोमभाजः – काठ.सं. २८.७ *सकृदवत्तँ हि पितॄणाम् – काठ.सं. २९.२, कपि.क.सं. ४५.३ *परं वा एतदन्नं यत् पितरः परेणैवान्नेनावरमन्नाद्यमवरुन्द्धे – काठ.सं. २९.२, कपि.क.सं. ४५.३ *यदस्यात्मनो मीयते पितॄँस्तद्गच्छति यत् सौम्यमवेक्षते तदेवात्मन् यच्छते – काठ.सं. २९.२ *परे वै देवेभ्यः पितरः – काठ.सं. ३०.१३?, तु. मै.सं. १.१०.१८ *न मृत्पात्रेणापिदध्यात्। यन्मृतपात्रेणापिदध्यात् पितृदेवत्यँँ हविः स्यात् – काठ.सं. ३१.२, कपि.क.सं. ४७.२ *इन्द्र आसन्नो भक्षो भक्ष्यमाणस्सखा भक्षितः पितरो नाराशँँसः – काठ.सं. ३४.१६ *एकयोपमन्थति, एकलोका हि पितरः – काठ.सं. ३६.११(तु. मै.सं. १.१०.१८) *अभिवान्यवत्साया दुग्धे भवति, सा हि पितॄणां नेदिष्ठम्। - काठ.सं. ३६.११ *पितर ऋतवः – काठ.सं. ३६.११ (तु. मै.सं. १.१०.१७, ३.४.४, मा.श. २.६.१.३२, ९.४.३.८ *चातुर्मास्यानि : सोममग्रे यजति सोमो वै पितॄणां देवता - - - यत् सोमं पितृमन्तं यजति सोमपाँस्तत् पितॄन् यजति यद्बर्हिषदो यज्वनस्तद् यदग्निष्वात्तान् गृहमेधिनस्तद्यदग्निं कव्यवाहनं द्वे वा अग्नेस्तन्वौ हव्यवाहन्या देवेभ्यो हव्यं वहति कव्यवाहन्या पितृभ्यो – काठ.सं. ३६.१३, मै.सं. १.१०.१८ *स्वधा नम इति वषट्करोति स्वधा हि पितॄणां नमस्कारो देवानां – काठ.सं. ३६.१३ *देवान् वै पितॄन् मनुष्याः पितरोऽनुप्रपिबन्ते देवानेवैतत् पितॄनयाड्यत् स्रक्तिषु निदधाति तेन मनुष्यान् पितॄन् यजति त्रिर्निदधाति, त्रीन् हीदं पुरुषान् अभिस्मस्त्रीन् परानन्वाचष्टे, त्रयो वै पिता पुत्रः पौत्रः – काठ.सं. ३६.१३ *पितॄन् वा एतद्यज्ञो अगन् पङ्क्त्या पुनरायन्ति पाङ्क्तो यज्ञः – काठ.सं. ३६.१३ *पितॄन् वा एतस्य मनो गच्छति मनो न्वाहुवामह इति तदेव पुनरुपह्वयते – काठ.सं. ३६.१३ *एतद्वा अस्य संवत्सरोऽभीष्टोऽभूदभीष्टाः पितरोऽथास्य रुद्रा अनभीष्टा रुद्रास्त्र्यम्बका यदेते त्र्यम्बकास्तेनास्य रुद्रा अभीष्टाः प्रीता भवन्ति – काठ.सं. ३६.१३ *यमेन पितॄन् (अन्वाभवत्) – काठ.सं. ४३.४ *पाङ्क्तः कशो मन्थीलवस्ते पितॄणाम् – काठ.सं. ४७.८ (तु. तै.सं. ५.५.१८.१, मै.सं. ३.१४.१९) *सकृदिव वै पितरः – कौ.ब्रा. ५.६, १०.४ *अपक्षयभाजो वै पितरः – कौ.ब्रा. ५.६ *पराञ्च उ वै पितरः – कौ.ब्रा. ५.६ *देवा वा एते पितरः – कौ.ब्रा. ५.६, गो.ब्रा. २.१.२४ *पितृलोकः पितरः – कौ.ब्रा. ५.७, गो.ब्रा. २.१.२५ *दक्षिणासंस्थो वै पितृयज्ञः – कौ.ब्रा. ५.७, गो.ब्रा. २.१.२५ *ऋतवः पितरः – कौ.ब्रा. ५.७, गो.ब्रा. २.१.२४, २.६.१५, मा.श. २४.२.२४, २.६.१.४ *पितृलोकः सोमः – कौ.ब्रा. १६.५ *पितृलोको यमः – कौ.ब्रा. १६.८ *अन्तभाजो वै पितरः – कौ.ब्रा. १६.८(तु. मै.सं. १.१०.१८, काठ.सं. ३६.१२) *अब्रूपेष्टकोपधानम् – इन्द्रघोषा वो वसुभिः पुरस्तादुपदधताम्। मनोजवसो वः पितृभिर्दक्षिणत उपदधताम्। प्रचेता वो रुद्रैः पश्चादुपदधताम्। विश्वकर्मा व आदित्यैरुत्तरत उपदधताम्। त्वष्टा वो रूपैरुपरिष्टादुपदधताम्। संज्ञानं वः पश्चादिति – तै.आ. १.२०.१ *पञ्च महायज्ञाः – यदग्नौ जुहोति अपि समिधं तद्देवयज्ञः संतिष्ठते। यत् पितृभ्यः स्वधाकरोत्यपस्तत् पितृयज्ञः संतिष्ठते। यद्भूतेभ्यो बलिं हरति तद्भूतयज्ञः संतिष्ठते। - - - - - – तै.आ. २.१०.३ *प्रवर्ग्य – यमाय त्वा अंगिरस्वते पितृमते स्वाहेत्याह। प्राणो वै यमोऽङ्गिरस्वान् पितृमान् – तै.आ. ५.७.११ *पितृभ्यो घर्मपेभ्यः स्वाहेत्याह। ये वै यज्वानः, ते पितरो घर्मपाः। – तै.आ. ५.८.८ (हे प्रेत) एतास्ते स्वधा अमृताः करोमि यास्ते धानाः परिकिराम्यत्र। तास्ते यमः पितृभिः संविदानो अत्र धेनूः कामदुघाः करोतु। - तै.आ. ६.९.१ *(हे प्रेत) दूर्वाणां स्तम्बमाहरैतां प्रियतमां मम। इमां दिशं मनुष्याणां भूयिष्ठा अनु विरोहतु। काशानां स्तम्बमाहर रक्षसामपहत्यै। - - - - दर्भाणाँँ स्तम्बमाहर पितृणामोषधीं प्रियाम्। अन्वस्यै मूलं जीवादनु काण्डमथो फलम्। - तै.आ. ६.९.१ *केवल कर्मणामपि मोक्षहेतुत्वं – मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव। – तै.आ. ७.११.२, तै.उ. १.११.२ *ते ये शतं देवगन्धर्वाणामानन्दाः। स एकः पितृणां चिरलोकलोकानामानन्दः। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य। ते ये शतं पितृणां चिरलोकलोकानामानन्दाः। स एक आजानजानां देवानां आनन्दः। – तै.आ. ८.८.२, तै.उ. २.८.२ *आरुणि सुपर्णेय- प्रजापति संवाद – प्रजननं वै प्रतिष्ठा लोके साधु प्रजायास्तन्तुं तन्वानः पितॄणामनृणो भवति – तै.आ. १०.६३.१ *एतद्वै जरामर्यमग्निहोत्रं सत्रं - - - -- अथ यो दक्षिणे प्रमीयते पितृणामेव महिमानं गत्वा चन्द्रमसः सायुज्यं गच्छति – तै.आ. १०.६४.१ *अपराह्णभाजो वै पितरस्तस्मादपराह्णे पितृयज्ञेन चरन्ति – गो.ब्रा. २.१.२४ *ओं स्वधेत्याश्रावयति, अस्तु स्वधेति प्रत्याश्रावयति, स्वधाकारो हि पितॄणाम्। - गो.ब्रा. २.१.२४ *अथ यत् प्रयाजानुयाजेभ्यो बर्हिष्मन्तावुद्धरति, प्रजा वै बर्हिः, नेत् प्रजां पितृषु दधानीति। - गो.ब्रा. २.१.२४ *स्विष्टकृतो वै पितरः, तस्मादग्निं कव्यवाहनमन्ततो यजति। – गो.ब्रा. २.१.२५ *अथ यदध्वर्य्युः पितृभ्यो निपृणाति, जीवानेव तत् पितॄननु मनुष्याः पितरो ऽनुप्रवहन्ति – गो.ब्रा. २.१.२५ *कुन्ताप सूक्तों में आहनस्या ऋचाएं (यदस्या अंहुभेद्या इति) -- पितरः प्रजापतिः – गो.ब्रा. २.६.१५ *अन्यतरोऽनड्वान्युक्तः स्यादन्यतरो विमुक्तोऽथ राजानमुपावहरेयुः। यदुभयोर्विमुक्तयोरुपावहरेयुः पितृदेवत्यं राजानं कुर्युः। यद्युक्तयोरयोगक्षेमः प्रजा विन्देत्ताः प्रजाः परिप्लवेरन्। योऽनड्वान् विमुक्तस्तच्छालासदां प्रजानां रूपं यो युक्तस्तच्च क्रियाणां, ते ये युक्तेऽन्ये विमुक्तेऽन्य उपावहरन्त्युभावेव ते क्षेमयोगौ कल्पयन्ति। - ऐ.ब्रा. 1.14 *प्राणो वै पिता – ऐ.ब्रा. २.३८ *अन्तरिक्षं तृतीयं पितॄन्यज्ञो ऽगात् – ऐ.ब्रा. ७.५ *ऊमा वै पितरः प्रातःसवने, ऊर्वा माध्यन्दिने काव्यास्तृतीयसवने – ऐ.ब्रा. ७.३४ *निधनं पितृभ्यः (प्रजापतिः प्रायच्छत्) तस्मादु ते निधनसंस्थाः – जै.उ.ब्रा. १.३.२.२ *बम्बेनाऽऽजद्विषेण (उद्गात्रा दीक्षामहा इति) पितरो दक्षिणतः (आगच्छन्) – जै.उ.ब्रा. २.३.१.२ *व्यानेन पितॄन् पितृलोके (अयास्य आङ्गिरसोऽदधात्) – जै.उ.ब्रा. २.३.२.३, ९ *तस्य योऽग्नेस्तृतीयो भागस्तं देवपितरः पर्यगृह्णन् दक्षिणतोऽनयन् स दक्षिणाग्निरभवत् तद् दक्षिणाग्नेर् दक्षिणाग्नित्वम् – काठ.संक. १५:१-३ *वसवः पितरः – काठ.संक. ५४:४, १४०:१२ *श्रद्दधानं वै पितरोऽन्वायन्ति – काठ.संक. ५७:८ *दक्षिणाग्नेभिर् (दर्भैः) वा अस्य (यजमानस्य) पितरः समुपसरन्ति – काठ.संक. ५८:४ *राजतेन (पात्रेण) पितरोऽदुहुः स्वधाम् – काठ.संक. १४०:९ *स्वाहा सोमाय पितृमते – मं.ब्रा. २.३.१ *पितॄणां वा एषा दिग्यद्दक्षिणा – षड्.ब्रा. ३.१ (तु. मै.सं. १.१०.१७, ४.७.२, काठ.सं. ३६.११, तै.आ. ५.८.४) *मनोजवसस्त्वा दक्षिणतः पितरः पान्तु – कपि.क.सं. २.३ *नाभिं वै पितरोऽभिसंजानते – कपि.क.सं. ४०.४ *मूलमिव पितॄणाम् – का.श. १.६.१.११ *यत्पीतत्वं तत्पितॄणाम् – षड्.ब्रा. ४.१ *प्राङ्मुखान्विश्वेदेवानुदङ्मुखान्पितॄन् – अथर्ववेद परिशिष्ट ४४.२.३ *पित्र्यमंशमुपवीतलक्षणं मातृकं च धनुरूर्जितं दधत् – रघुवंश ११.६४, कु. ६.६, शि.१.७, मनु. २.४४, २.६४, ४.३६ |