पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (From Dvesha to Narmadaa ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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One mantra of Bhaagavata puraana mentions that love is required for God, friendship for his devotees, grace for those whose energy is scattered and slighting/ignoring is required for those who despise(This is quite akin to the formula of Maitri, Karunaa, Muditaa and Upekshaa prevalent in Buddhist literature). There is a famous story of one Shishupaala who attained god through despise. Moreover, Mahaabhaarata mentions that Karna had despise with Arjuna, Duryodhana with Bhima, Kaurvas with Pandavas. The word Dwesha has been amply used in vedic mantras. There it often appears with adjective Vishvaa. There, it has three forms – one in which first letter is accentuated, the second one in which the second letter is accentuated and the third one which is in plural. The word in vedic literature requires proper explanation in future. Here in this remark we can try to find out the meaning of what Bhaagavata puraana may mean when it instructs to ignore those who despise. Here, the mantra of Geeta can be quoted which says that the despise can be from three types based on Satva or Raja or Tamas. One should neither hate their appearance nor desire them when these disappear. It seems that this talk of despise is about the siddhis/successes in yoga which appear suddenly when one sits for meditation. These appearances can be distasteful also. One should ignore them. The same fact can be true about the delicacies appearing before us in daily life also.
द्वेष टिप्पणी : द्वेष शब्द का महत्त्व भागवत ११.२.४६ के निम्नलिखित श्लोक से जाना जा सकता है : ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च । प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यम: ।। इसका अर्थ है कि ईश्वर के लिए प्रेम की आवश्यकता है, उसके आधीन भक्तों के लिए मैत्री की, जो बालिश हैं, जो वाल रूप हैं, जिनकी ऊर्जा बिखरी हुई है, उनके लिए कृपा की और जो द्वेष करने वाले हैं, उनकी उपेक्षा की आवश्यकता है । पौराणिक साहित्य में उल्लेख आता है कि शिशुपाल ने द्वेष से ईश्वर की प्राप्ति की । महाभारत में उल्लेख आते हैं कि कर्ण अर्जुन से द्वेष रखता था, दुर्योधन भीम से, कौरव पाण्डवों से आदि । वेद मन्त्रों में प्रचुरता से द्वेष शब्द प्रकट हुआ है । वहां द्वेष शब्द तीन रूपों में प्रकट हुआ है । एक द्वेष वह है जहां द्वे अक्षर उदात्त है । एक में ष उदात्त है । और तीसरा रूप द्वेष का बहुवचन है । इन मन्त्रों में प्रायः द्वेष के विशेषण के रूप में विश्वा शब्द को जोडा गया है । द्वेषों को यव की भांति जोडने की कामना की गई है । इसके अतिरिक्त, दो प्रकार के द्वेष हैं - एक वह जो हम दूसरों से करते हैं और एक वह जो दूसरे हम से करते हैं । वैदिक मन्त्रों में प्रकट द्वेष की व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है । वर्तमान में हम भागवत पुराण में प्रकट द्वेष शब्द पर विचार करते हैं जिसकी उपेक्षा का निर्देश है। भगवद्गीता १४.२२ का श्लोक निम्नलिखित है : प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव । न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति ।। यह श्लोक तीन गुणों की व्याख्या के संदर्भ में कहा गया है । इसकी व्याख्या में कहा गया है कि प्रकाश सतोगुणी है, प्रवृत्ति रजोगुणी तथा मोह तमोगुणी । इनके संप्रवृत्त होने/प्रकट होने पर इनसे द्वेष न करे और इनके विलीन होने पर इनकी कामना न करे । ऐसा प्रतीत होता है कि साधना में साधक के समक्ष जो अनायास सिद्धियां प्रकट होती रहती हैं, उनके लिए यह निर्देश किया गया है कि उनमें लिप्त न हो, उनकी उपेक्षा करे । ऐसा भी होता है कि कोई साधक किसी विशेष कामना सिद्धि के लिए बैठता है और उसके समक्ष भयावह दृश्य उपस्थित होने लगते हैं । उनकी उपेक्षा की आवश्यकता है । यही तथ्य नित्यप्रति के जीवन में उपलब्ध होने वाले भोगों के प्रति भी समझा जाना चाहिए । शिशुपाल की कथा में कृष्ण के दर्शन से शिशुपाल की चार भुजाओं में से दो के गिरने का उल्लेख आता है । इस कथा का उपयोग वैदिक साहित्य में द्वेषों को यव का रूप देने के संदर्भ में हो सकता है ।
DWESHA IN BRAAHMANIC LITERATUREThere is a mention in Bhaagavata Puraana that Gopis attained God by love, king Kansa by fear and kings like Shishupaala by despise/hate. What is meant by despise? And how God can be attained through it? One gets an understanding of the word from mention in Bhaagavata puraana that one is unable to see God in others’ bodies because of despise. Thus it can be assumed that one whose consciousness is confined only to his own body, one who is unable to get true judgment through his senses, is afflicted with despise. In the language of Somayaga, he is called an animal. In somayaga, an animal is sacrificed to impart him broader senses. It has been mentioned in Braahmanical texts that despise is placed in wild animals, not in pet animals. Pet animals can be sacrificed for attainment of broader senses, but not wild animals. It has been stated in one Upanishadic text that one who knows how to bring up a baby, how to keep her entangled with central life force, how to feed her, he can defeat those 7 who despise us. Further, it has been stated that there is a vessel whose bottom is upwards and mouth downwards. This is filled with fame(yasha) and seven seers are sitting on the banks. This indicates that the 7 seers is the opposite state of those 7 who despise. In normal state, our 7 senses on the head such as ears, eyes, nose etc. can be called those 7 who despise. These seven senses get developed gradually starting from our feet and reach the climax on the head. It is beyond imagination what will be the state at the initial stage when even the climax is afflicted with despise. The upanishada says that if the vessel is upside down, in the words of Dr. Fatah Singh, if one comes down from the trance, then his senses are like seven seers. Seer is one who is able to see beyond normal senses. One Braahmanical text states that the earth which is afflicted with pits etc. can be given to those who despise. The state of wider consciousness can be said to be opposite to it. In terms of modern solid state physics, the defects in a solid can be called the state of despise for a solid. How to circumvent the state of despise? To understand this, one has to keep in mind that in our body, the feet are the natural abode of element earth, thighs are the abode of water, naval of fire, heart to forehead of air and head of sky/emptiness. Each of these elements can help get rid of the state of despise. Accordingly, the braahmanical texts mention water, fire, sun etc. for cleansing of despise. In addition to this, there is a universal mention of different types of thunderbolts/vajra for getting rid of those who despise. These thunderbolts are nothing but different means of getting our consciousness broader. As our consciousness gets broader, it is able to collect finer food from the universe, our dependence on gross food becomes less and less. There is mention of 4 directions from which despise has to eliminated. One has to complete the cycle of annihilation of different senses and then have a new creation free from despise.
ब्राह्मण ग्रन्थों में द्वेष भागवत पुराण ७.१.३० आदि का कथन है कि गोपियों ने काम द्वारा परमात्मा को प्राप्त किया, कंस आदि ने भय से, चैद्य आदि नृपों( शिशुपाल आदि ) ने द्वेष से । अन्यत्र उल्लेख आता है कि रावण ने शत्रुता से परमात्मा को प्राप्त किया । प्रश्न यह है कि द्वेष क्या होता है और उस से परमात्मा की प्राप्ति कैसे की जा सकती है । द्वेष को राग का विलोम समझा जाता है । भागवत पुराण ३.२९.२३ तथा ११.५.१५ में उल्लेख है कि द्वेष के कारण परकाया में ईश्वर के दर्शन नहीं होते । ऐसी कल्पना की जा सकती है कि जिसकी चेतना केवल अपनी काया में ही बद्ध है, जिसको सम्यक् दर्शन की शक्ति प्राप्त नहीं है, वह द्वेष से ग्रस्त है । सोमयाग की भाषा में उसे पशु कहते हैं । सोमयाग में पशु का संज्ञपन किया जाता है - उसकी वर्तमान सीमित संज्ञा को समाप्त करके उसे बृहत्तर संज्ञा के स्तर पर स्थापित किया जाता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.१०.२ में उल्लेख आता है कि जिससे द्वेष हो, उसकी पशु रूप में कल्पना करके उसे रुद्र को आहुति के रूप में अर्पित कर दे । शतपथ ब्राह्मण ७.५.२.३२-३६ में ४ ग्राम्य व तत्सम ४ आरण्यक पशुओं का उल्लेख है जिसमें द्वेष को आरण्यक पशुओं में रखा जाता है । यह उल्लेखनीय है कि सोमयाग में आरण्यक पशुओं का संज्ञपन नहीं किया जाता, उनका केवल अभिषेक करके मुक्त कर दिया जाता है । उन्हें मेधा से हीन माना जाता है । बृहदारण्यक उपनिषद २.२.१ में शिशु ब्राह्मण शीर्षक वाले अध्याय में कहा गया है कि जो शिशु को उसके आधान, प्रत्याधान, स्थूणा व दाम सहित जानता है, वह द्वेष करने वाले ७ भ्रातृव्यों को परास्त करता है । इससे आगे शीर्ष रूपी उल्टे रखे एक पात्र का कथन है जिसका पैंदा ऊपर है और मुख नीचे की ओर । इस पात्र में यश भरा है और ७ ऋषि उसके किनारे बैठे हुए हैं । यहां ७ ऋषियों का उल्लेख ७ द्वेष करने वाले भ्रातृव्यों से उलटी स्थिति है । सामान्य स्थिति में हमारे चक्षु, कर्ण, घ्राण आदि ज्ञानेन्द्रियों को ७ द्वेष करने वाले भ्रातृव्य कहा जा सकता है । हमारे शीर्ष प्राणों का विकास क्रमिक रूप में पाद से आरम्भ होता है और शीर्ष पर पहुंच कर चक्षु आदि के रूप में पराकाष्ठा को प्राप्त करता है । इन शीर्ष प्राणों में भी द्वेष विद्यमान है तो निम्नतर प्राणों की क्या स्थिति होगी, यह कल्पना का विषय है । शिशु ब्राह्मण का कथन है कि यदि शीर्ष रूपी यह पात्र उल्टा हो जाए, डा. फतहसिंह के शब्दों में, यदि यह समाधि की ओर प्रस्थान के बदले समाधि से व्युत्थान हो जाए तो तब मनुष्य समाधि से जो चेतना लेकर लौटता है, वह सात ऋषियों जैसी होती है । ऋषि अतीन्द्रिय दर्शन करने में समर्थ होते हैं । गोपथ ब्राह्मण २.६.१४ में आदित्य व अङ्गिराओं से सम्बन्धित एक आख्यान है । अङ्गिराओं ने आदित्य से भूमि को यज्ञ की दक्षिणा के रूप में लेने से अस्वीकार कर दिया । वह भूमि शोक से ग्रस्त हो गई और इस कारण प्रदर ग्रस्त हो गई । पृथिवी पर जो गर्त आदि हैं, यह उसी कारण से हैं । ऐसी प्रदरग्रस्त पृथिवी को द्वेष युक्त भ्रातृव्यों को देने का विधान है । प्रदर से विपरीत स्थिति पृथु स्थिति होती है । यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त आख्यान भी संकीर्ण चेतना की, द्वेष युक्त चेतना की व्याख्या ही है ( महाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत अर्घाहरण पर्व में एक स्थान पर शिशुपाल भीष्म से कहता है कि यदि अर्घ अर्पित करने योग्य व्यक्ति को ही ढूंढना है तो दरद देश के राजा बाह्लीक को अर्पित करो जिसके जन्म लेने पर पृथिवी दर युक्त हो गई थी ) । आधुनिक ठोस अवस्था भौतिकी के शब्दों में द्वेष को ठोस में उपस्थित दोष, डिफेक्ट माना जा सकता है । द्वेष की स्थिति से ऊपर उठने का क्या उपाय है, इसकी चर्चा ब्राह्मण ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार से की गई है । हमारी देह में पदों को पृथिवी तत्त्व का, ऊरुओं को जल तत्त्व का, नाभि को अग्नि तत्त्व का, हृदय से लेकर भृकुटि पर्यन्त वायु का और शीर्ष को आकाश का स्वाभाविक स्थान कहा गया है । यह कल्पना की जा सकती है कि इनमें से प्रत्येक तत्त्व चेतना को द्वेष से मुक्त करने में क्रमिक योगदान करता है । अतः तदनुसार ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रत्येक तत्त्व द्वारा द्वेष से मुक्ति के उल्लेख होने चाहिएं । शतपथ ब्राह्मण १२.९.२.६, १३.८.४.५ व १४.३.१.२७, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.६.३, तैत्तिरीय आरण्यक १०.१.११ में द्वेष के संदर्भ में आपः के उल्लेख हैं । ऐतरेय ब्राह्मण ५.२१ में जातवेदा अग्नि, तैत्तिरीय आरण्यक ६.११.२ में विश्वमुख अग्नि तथा ४.३२.१ में दीर्घमुखी अग्नि के उल्लेख हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.६.२३ में आदित्य का, तैत्तिरीय आरण्यक ४.२०.२ व ५.१०.५ में प्रवर्ग्य के उल्लेख हैं । इसके अतिरिक्त, विभिन्न वज्रों द्वारा द्वेष करने वाले भ्रातृव्यों के नाश का निर्देश है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.७ व गोपथ ब्राह्मण २.३.२-३ में वषट्कार रूपी वज्र, ऐतरेय ब्राह्मण ४.१ व जैमिनीय ब्राह्मण १.१९० में षोडशी वज्र, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.५.१.१ में पंचदश वज्र के उल्लेख हैं । जैमिनीय ब्राह्मण १.२४९ में त्रिवृत्~ वज्र का उल्लेख है । त्रिवृत्~, पञ्चदश, षोडश आदि जिन वज्रों के नामोल्लेख हैं, सामवेद में इन्हें स्तोम कहा जाता है । ऋग्वेद की तीन ऋचाओं को मिलाकर साम का रूप दिया जाता है जिसके विभिन्न पदों की पुनरावृत्ति लोक में शास्त्रीय गायन की भांति करके उससे स्तोम बनाया जाता है । जैमिनीय ब्राह्मण में उल्लेख आता है कि प्रजापति से उसकी प्रजाएं दूर चली गई जिससे वह क्षुधाग्रस्त हो गया । तब उसने इन्द्र को निर्देश दिया कि स्तो मे - मेरी स्तुति करो । इससे प्रजा पुनः पास में आ गई और क्षुधा का निवारण हो गया । वही स्तोम कहलाता है । प्रजा को अपने विचार तथा उच्चतर चेतनाएं, प्रज्ञा माना जा सकता है जिनके क्षय से हमारे अन्दर क्षुधा का जन्म होता है । क्षुधा की तृप्ति के रूप में हम जो भोजन ग्रहण करते हैं, वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने अन्दर आत्मसात् करने का प्रयास करते हैं । स्थूल भोजन का ग्रहण करना द्वेष की स्थिति है । स्तोम द्वारा सूक्ष्म भोजन ग्रहण करना पृथु चेतना की स्थिति है । वेद मन्त्रों व ब्राह्मणों में द्वेष के अपनयन के लिए प्रायः यव के उल्लेख आते हैं ( उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण ३.६.१.११, ३.७.१.४, जैमिनीय ब्राह्मण २.११७) । तैत्तिरीय आरण्यक ६.९.२ व ६.१०.२ में ४ दिशाओं में क्रमशः वारण वनस्पति, शमी वनस्पति, अज व यव द्वारा द्वेष के अपनयन का उल्लेख है । द्वेष के संदर्भ में दिशाओं के उल्लेख अन्यत्र भी आए हैं, जैसे ऐतरेय ब्राह्मण ३.३१, ६.४, शतपथ ब्राह्मण ९.२.३८, १२.९.२.६ आदि । ऐसा माना जा सकता है कि दिशाओं के संदर्भ में द्वेष के उल्लेख वेद मन्त्रों में द्वेष के उल्लेखों की व्याख्या होंगे । ऐतरेय ब्राह्मण १.२३ में उपसद द्वारा द्वेष करने वाले भ्रातृव्यों को संवत्सर के विभिन्न पर्वों से निकालने का वर्णन है । ऐतरेय ब्राह्मण ८.२८ में ब्रह्म के परिमर द्वारा द्वेष को समाप्त करने का कथन है । कहा गया है कि जैसे विद्युत् विद्योतन करके वृष्टि में लीन हो जाती है, उसका पता नहीं लगता, वैसे ही मेरे द्वेषी मरें । जैसे वृष्टि वर्षा करके चन्द्रमा में लीन हो जाती है, वैसे ही द्वेषी भी । जैसे चन्द्रमा अमावास्या को आदित्य में लीन हो जाता है, वैसे ही द्वेषी भी । जैसे आदित्य अस्त होकर अग्नि में लीन हो जाता है, वैसी ही द्वेषी भी । जैसे अग्नि ऊपर उठकर (?) वायु में लीन हो जाता है, वैसे ही द्वेषी भी । फिर इनका क्रमशः उदय होता है । वायु से अग्नि का उदय होता है । प्राण के मन्थन से अग्नि का उदय होता है । तब कहे कि अग्नि का ही जन्म हो, द्वेषियों का नहीं । इसी प्रकार अन्यों का भी । इसे ब्रह्म परिमर नाम दिया गया है । ऐतरेय आरण्यक २.१.८ में द्वेषियों का भक्षण करने वाले विज्ञानमय कोश को गिरि ( गिरति, अत्ति ) की संज्ञा दी गई है । शतपथ ब्राह्मण ६.५.२.२२ में ऊन - अतिरिक्त को द्वेष का कारण कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ४.३.३.५ में वज्र के संदर्भ में ५ ग्रहों का उल्लेख है, ऐतरेय ब्राह्मण २.१ में यूप का, तैत्तिरीय आरण्यक ४.४२.१ में वास्तु का ।
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