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पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Dvesha to Narmadaa )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Dwesha - Dhanavati ( words like Dwesha,  Dvaipaayana, Dhana / wealth, Dhananjaya, Dhanada etc.)

Dhanaayu - Dhara ( Dhanu / bow, Dhanurveda / archery, Dhanusha / bow, Dhanushakoti, Dhanyaa,  Dhanvantari, Dhara etc.)

Dhara - Dharma ( Dharani, Dharaa, Dharma etc.)

Dharma - Dharmadatta ( Dharma, Dharmagupta, Dharmadatta etc.)

Dharmadhwaja - Dhaataa/Vidhaataa ( Dharmadhwaja, Dharmaraaja, Dharmasaavarni, Dharmaangada, Dharmaaranya, Dhaataki, Dhaataa, Dhaaataa - Vidhaataa etc.)

Dhaatu - Dhishanaa ( Dhaataa - Vidhaataa, Dhaatu / metal, Dhaatri, Dhaanya / cereal, Dhaarnaa, Dhaarni, Dhaaraa, Dhishanaa etc.)

Dhishanaa - Dhuupa (Dhee / intellect, Dheeman, Dheera,  Dheevara, Dhundhu, Dhundhumaara, Dhuupa etc.)

Dhuuma - Dhritaraashtra  ( Dhuuma / smoke, Dhuumaketu, Dhuumaavati, Dhuumra, Dhuumralochana, Dhuumraaksha, Dhritaraashtra etc.)

Dhritaraashtra - Dhenu ( Dhriti, Dhrista, Dhenu / cow etc.)

Dhenu - Dhruva ( Dhenu, Dhenuka, Dhaumya, Dhyaana / meditation, Dhruva etc. )

Dhruvakshiti - Nakshatra  ( Dhruvasandhi, Dhwaja / flag, Dhwani / sound, Nakula, Nakta / night, Nakra / crocodile, Nakshatra etc.)

Nakshatra - Nachiketaa ( Nakshatra, Nakha / nail, Nagara / city, Nagna / bare, Nagnajit , Nachiketa etc.)

Nata - Nanda (  Nata, Nataraaja, Nadvalaa, Nadee / river, Nanda etc.)

Nanda - Nandi ( Nanda, Nandana, Nandasaavarni, Nandaa, Nandini, Nandivardhana, Nandi etc.)

Napunsaka - Nara (  Nabha/sky, Nabhaga, Namuchi, Naya, Nara etc. )

Naraka - Nara/Naaraayana (Nara / man, Naraka / hell, Narakaasura, Nara-Naaraayana etc.) 

Naramedha - Narmadaa  (  Naramedha, Naravaahanadutta, Narasimha / Narasinha, Naraantaka, Narishyanta, Narmadaa etc. )

 

 

Puraanic contexts of words like Dhruvasandhi, Dhwaja / flag, Dhwani / sound, Nakula, Nakta / night, Nakra / crocodile, Nakshatra etc. are given here.

ध्रुवक्षिति ब्रह्माण्ड १.२.३६.७५(चाक्षुष मन्वन्तर में लेखवर्ग के एक देवता )

 

ध्रुवसन्धि देवीभागवत ३.१४ (कोसल - राजा, पुष्य - पुत्र, मनोरमा व लीलावती - पति, सिंह से युद्ध व मृत्यु), ब्रह्माण्ड २.३.६३.२०९(पुष्य - पुत्र, सुदर्शन - पिता, कुश वंश), भागवत ९.१२.५(पुष्य - पुत्र, सुदर्शन - पिता, कुश वंश), वायु ८८.२०९/२.२०६.२०८(वही), विष्णु ४.४.१०८(वही), वा.रामायण १.७०.२६(सुसन्धि - पुत्र, भरत - पिता, प्रसेनजित् - भ्राता, इक्ष्वाकु वंश )  dhruvasandhi

 

ध्वज अग्नि ५६.१० (तोरणों / द्वारों पर स्थित ध्वजों के प्रकारों का वर्णन), ६१.१७ (ध्वज आरोपण विधि, ध्वज अवयवों के प्रतीकार्थ), ९६.१० (८ ध्वज देवताओं के नाम), १०२.२५ (कुण्डलिनी शक्ति का  प्रतीक, ध्वज आरोपण विधि), २६९.९ (ध्वज प्रार्थना मन्त्र), गणेश २.२७.७ (राज - मन्त्री, दुष्ट राजपुत्र साम्ब द्वारा बन्धन), २.११४.१५ (सिन्धु असुर व गणेश के युद्ध में ध्वजासुर का पुष्पदन्त से युद्ध), नारद १.१९ (कार्तिक शुक्ल एकादशी को ध्वजारोपण व्रत विधि), १.२०(ध्वजारोपण के महत्त्व के संदर्भ में राजा सुमति तथा उसकी रानी सत्यमति के पूर्व जन्म का वृत्तान्त), ब्रह्माण्ड २.३.७२.७५(नवम देवासुर सङ्ग्राम का नाम, इन्द्र द्वारा अदृश्य ध्वज का वध), भविष्य १.१३८ (विभिन्न देवताओं हेतु ध्वज दण्डों के प्रमाण तथा ध्वज चिह्नों का विस्तृत वर्णन), ४.६१.४६ (ध्वज नवमी व्रत, दुर्गा आदि द्वारा असुर का हनन), ४.१३८.५१ (ध्वज मन्त्र), ४.१३९ (इन्द्रध्वज उत्सव, ध्वज अपशकुन का वर्णन), मत्स्य १४८.४५ (तारकासुर संग्राम में दैत्यों के केतुओं का कथन), १४८.४६ (कुजम्भ दैत्य का ध्वज), १४८.४६ (जम्भ दैत्य का ध्वज), १४८.४७ (महिष दैत्य का ध्वज), १४८.४७ (शुम्भ दैत्य का ध्वज), १४८.८६ (देव सेना में यक्षों, राक्षसों, किन्नरों, यम, इन्द्र आदि की ध्वजाओं का वर्णन), वामन ६९.१२४(स्वस्तिक जगद्रथ के वानर ध्वज से युक्त होने का उल्लेख), वायु ५१.६३ (सूर्य रथ में घर्म रूपी ध्वज), ९७.७५, ८५/२.३५.७५(नवम देवासुर सङ्ग्राम का नाम, इन्द्र द्वारा अदृश्य ध्वज का वध), विष्णु १.८.३२ (पताका व ध्वज में स्त्री - पुरुष के सम्बन्ध का उल्लेख), ४.१२.१(ध्वजिनीवान् : क्रोष्टु - पुत्र, स्वाति -  पिता, यदु वंश), विष्णुधर्मोत्तर २.१५४ (असुरों पर विजय प्राप्ति हेतु विष्णु द्वारा शक्र को शक्रध्वज प्रदान करना, शक्र ध्वज के महत्त्व का वर्णन), २.१५५ (शक्रध्वज उत्सव का वर्णन), २.१६०.१२ (ध्वज मन्त्र), ३.९४ (विभिन्न देवताओं के ध्वज), ३.९८ (प्रासाद प्रतिष्ठा के अन्तर्गत स्थण्डिल परिकल्पना, तोरण, ध्वज आदि की प्रतिष्ठा आदि का वर्णन), ३.९८ (तोरणों के ऊपर विभिन्न दिशाओं में ध्वजों व पताकाओं के लक्षणांकों का कथन ) ३.११६ (मूर्ति प्रतिष्ठा से पूर्व तोरणोद्धार विधि का वर्णन), ३.१४६ (चतुर्व्यूह के देवताओं के ध्वजों के चिह्नों और उनके व्रतों का वर्णन),  ३.२३३.१६८ (ध्वजी के दशचक्र सम और वेश्या के दस ध्वज सम होने का पुराणों का सार्वत्रिक श्लोक), शिव २.५.८.१३ (शिव के रथ में स्वर्ग व मोक्ष का ध्वज बनना), ४.१३ (भोज में बटुक पूजा न होने से ध्वज पात), स्कन्द १.२.१६.१७ (तारक संग्राम में ग्रसन, जम्भ, कुजम्भ, महिष, कुञ्जर, मेष, कालनेमि, मथन, जम्भक, शुम्भ असुरों के ध्वज), १.२.१६.६५(देवों के ध्वज), २.२.२५.९(सुभद्रा के रथ के पद्मध्वज होने का उल्लेख), ४.२.५८.१६१ (शिव रथ में कल्पतरु ध्वज, सुमेरु ध्वज - दण्ड), ५.३.२८.१८(त्रिपुर दाह हेतु शिव के रथ में सत्य के ध्वज होने का उल्लेख),  हरिवंश २.११०.७८ (यज्ञों की ध्वज यूप होने का उल्लेख), लक्ष्मीनारायण १.२७०.२०(आषाढ पञ्चमी को वायु व्रत के अन्तर्गत ध्वज फहराने की दिशा निरीक्षण का कथन), १.२८२.२५(ध्वजारोपण व्रत विधि, ध्वज के विभिन्न अवयवों का महत्त्व, ध्वजारोपण के महत्त्व के संदर्भ में राजा सुमति व रानी सत्यमति के पूर्व जन्म का वृत्तान्त), १.३८२.२९(विष्णु के ध्वज व लक्ष्मी के पताका होने का उल्लेख), २.१३९.४४ (प्रासाद के ध्वजाधार के मान का कथन), २.१३९.६९ (ध्वजदण्ड के प्रमाण का विवेचन), २.१४२.४२(मूर्ति प्रतिष्ठा उत्सव में मण्डप की आठ दिशाओं में रोपणीय विभिन्न ध्वजों का वर्णन), २.१५८.५९ (प्रासाद के ध्वज की नर के केशों से उपमा), २.१६०.२६ (मूर्ति प्रतिष्ठा के संदर्भ में मण्डप में कलश स्थापना के साथ ध्वजारोपण का निर्देश ; ध्वजारोपण के महत्त्व का वर्णन), २.१७६.१६ (ज्योतिष में एक योग), ४.४८३ (मिष्टासवध्वजी नामक मदिरा व्यवसायी द्वारा कथा सुनने के संकल्प पर भगवान द्वारा सहायता आदि करने का वर्णन), महाभारत उद्योग ५६.७ (अर्जुन के रथ के ध्वज की दिव्यता का वर्णन), भीष्म १७.२५ (कौरव सेना के महारथियों द्रोण, दुर्योधन, कृप, जयद्रथ आदि के ध्वजों के चिह्नों का कथन), द्रोण २३.७२ (पाण्डव सेना के महारथियों पाण्ड्य, घटोत्कच, युधिष्ठिर, नकुल आदि के ध्वज चिह्नों का वर्णन), १०५.८ (कौरव महारथियों व अर्जुन के ध्वज चिह्नों का वर्णन), कर्ण ८७.९३ (कर्ण की ध्वज में हस्तिकक्षा / हाथी की सांकल का चिह्न व अर्जुन की ध्वज में कपि चिह्न , युद्ध से पूर्व ध्वजों में युद्ध ) ; द्र. अमितध्वज, ऋतध्वज, कुम्भध्वज, कुशध्वज, कृतध्वज, केशिध्वज, क्रतुध्वज, जयध्वज, तालध्वज, धर्मध्वज, नीलध्वज, बृहद्ध्वज, मयूरध्वज, मलयध्वज, यज्ञध्वज, रथध्वज, विलापध्वज, वृषध्वज, वृषभध्वज, शिखिध्वज  dhwaja

 

ध्वनि अग्नि ३४८.७ (ड व ढ अक्षरों का ध्वनि के अर्थ में प्रयोग का उल्लेख), देवीभागवत ७.३८ (देवी, शङ्कुकर्ण पर्वत पर वास), ब्रह्म १.३४.७१(मन्त्र ध्वनि से हर्षित मयूरी द्वारा केका रव करने का उल्लेख), मत्स्य १३.४८(शङ्खोद्धार में स्थापित सती देवी की मूर्ति), स्कन्द ४.१.४१.९७(पवन के व्योम में प्रवेश पर घण्टा आदि महान् ध्वनि के उत्पन्न होने का उल्लेख), ५.३.१९८.८६ (माण्डव्य - शूलेश्वरी देवी संवाद में उमा के शङ्खोद्धार तीर्थ में ध्वनि नाम से स्थित होने का उल्लेख ); द्र. वंश वसुगण dhwani

 

ध्वांक्ष मत्स्य १४८.४७ (शुम्भ दैत्य के ध्वज का चिह्न), लक्ष्मीनारायण २.१७६.१४ (ज्योतिष में एक योग )

 

ध्वान्त वायु ६७.१२६/२.६.१२६(४९ मरुतों के तृतीय गण में से एक )

नकुल कूर्म २.४२.१२/२.४४.१२ (नकुलीश्वर तीर्थ का माहात्म्य), गरुड १.२१७.२५ (घृत का हरण करने से नकुल योनि की प्राप्ति), देवीभागवत ७.३८ (नाकुल क्षेत्र में नकुलेश्वरी देवी का वास), पद्म ६.८८.१४ (इन्द्र के वज्र प्रहार के कारण गिरे गरुड के पक्ष से मयूर, नकुल व चाष / नीलकण्ठ की उत्पत्ति का उल्लेख), ब्रह्मवैवर्त्त १.१६.१७ (चिकित्सा शास्त्र की रचना करने वाले १६ चिकित्सकों में से एक), २.३१.४७ (मित्र द्रोही के नकुल बनने का उल्लेख), ब्रह्माण्ड १.२.१८.६८(नाकुली : निषध पर्वत पर स्थित विष्णुपद से निकली २ नदियों में से एक), ३.४.२३.५२ (नकुली देवी का ललिता देवी के तालु से प्राकट्य, सर्पिणी माया का नाश करना, करङ्क का वध), ३.४.२८.३९ (नकुली देवी का विष से युद्ध), भविष्य  ३.३.१ (नकुल का कलियुग में लक्षण रूप में अवतरण), ३.३.५९ (कलियुग में नकुल का वीरवती व रत्नभानु - पुत्र लक्षण के रूप में जन्म का उल्लेख), मत्स्य १५.२१ (घृत हरण के फलस्वरूप प्राप्त योनि), १९५.२५(नाकुलि : भार्गव कुल के गोत्रकार ऋषियों में से एक ), वराह १२६ (नकुल का सर्पिणी से युद्ध, मरण, जन्मान्तर में राजपुत्र बनने की कथा), वामन ४६.१३ (स्थाणु लिङ्ग के पश्चिम् में नकुलीश गण की स्थिति का उल्लेख), वायु २३.२२१ (नकुली : २८वें द्वापर में शिव का अवतार), विष्णु ३.७ (नकुल द्वारा भीष्म से यमलोक अपवर्जक कर्मों के बारे में पृच्छा) विष्णुधर्मोत्तर २.१२०.२०(घृत हरण से नकुल योनि प्राप्ति का उल्लेख), स्कन्द १.२.१३.६२ (यज्ञ में याज्ञवल्क्य द्वारा मुनि को नकुल कहकर पुकारने पर नकुल द्वारा याज्ञवल्क्य को नकुल होने का शाप, याज्ञवल्क्य का दुष्ट विप्र के पुत्र रूप में जन्म, नकुलेश्वर लिङ्ग के दर्शन से दुष्ट जन्मता से मुक्ति), ४.२.६९.११६ (नकुलीश्वर लिङ्ग का संक्षिप्त माहात्म्य), ६.१०९.१७ (कारोहण तीर्थ में नकुलीश लिङ्ग), लक्ष्मीनारायण १.२०२.७ (१६ चिकित्सकों में से एक), १.२७४.१९ (श्रावण शुक्ल नकुल नवमी व्रत की संक्षिप्त विधि व माहात्म्य), १.५७१.२६ (माघ शुक्ल द्वादशी को कुब्जाम्रक तीर्थ के माहात्म्य के संदर्भ में नकुल व सर्पिणी की कुब्जाम्रक तीर्थ में मृत्यु पश्चात् राजपुत्र व राजकन्या बनने की कथा), ४.७१.१ (यज्ञ में उत्कर में प्रसाद मिश्रित उच्छिष्ट के भक्षण से नकुल का  मुक्त होकर देव बनना, देव रूप नकुल द्वारा वैष्णव मन्त्र जप से नकुल का सकुल, कुलवान बनना), कथासरित् ६.७.१०७ (नकुल और उलूक के भय से मुक्ति के लिए मूषक द्वारा आपद~ग्रस्त मार्जार से क्षणिक मैत्री करने की कथा), १०..२३५ (बक द्वारा सर्प से मुक्ति पाने के लिए नकुल के बिल से लेकर सर्प के बिल तक मांस खण्ड बिखेरने की लघु कथा), १०.८.८ (बालक की सर्प से रक्षा करने वाले नकुल की ब्राह्मण द्वारा भ्रम से हत्या की लघु कथा), महाभारत शान्ति १३८.३१(मूषक द्वारा मार्जार से मित्रता करके हरिण नामक नकुल व उलूक के भय से स्वयं को मुक्त करने की कथा), आश्वमेधिक ९०.५(नकुल द्वारा राजा युधिष्ठिर के अश्वमेध की निन्दा करते हुए ब्राह्मण द्वारा अतिथि को दान किए गए सक्तू के महत्त्व का वर्णन करना), ९०.११०(सक्तु कणों आदि से नकुल के शिर के स्वर्णिम होने का कथन), ९२.४०(नकुल के पूर्व जन्म का वृत्तान्त : धर्म का क्रोध रूप धारण कर पितरों के तर्पण हेतु पय: में प्रवेश करना, पितरों के शाप से नकुल बनना )  nakula

Comments on Braahmani - nakula - vatsa story

नक्त अग्नि १०७.१५ (पृथु - पुत्र, गय - पिता), ब्रह्माण्ड १.२.१४.६८(पृथु - पुत्र, गय - पिता), भविष्य १.८२.१५ (नक्षत्र दर्शन से नक्त होने का उल्लेख ; आदित्य वार को नक्त व्रत का महत्त्व), ४.९६ (नक्त व्रत की विधि), ४.११५ (आदित्य वार को नक्त व्रत की विधि व माहात्म्य), भागवत ५.१५.६ (पृथुषेण व आकूति - पुत्र, द्रुति - पति, गय - पिता, भरत वंश), स्कन्द २.५.१२.२३ (दिन के अष्टम भाग में दिवाकर के मन्द होने का समय ), द्र. वंश भरत nakta

 

नक्र गणेश २.८.२१ (महोत्कट गणेश द्वारा नक्र का वध, नक्र के पूर्व जन्म का वृत्तान्त), ब्रह्मवैवर्त्त २.३०.८१ (नक्र की हत्या पर नरक में नक्रकुण्ड प्राप्ति का कथन), २.३०.१३५ (सामान्य द्रव्य चोरी  से नक्रमुख नरक की प्राप्ति का उल्लेख), स्कन्द ३.१.४९.४२(व्याधि की नक्र रूप में कल्पना), लक्ष्मीनारायण १.३७०.९९ (नरक में नक्र कुण्ड प्रापक कर्मों का उल्लेख )  nakra

 

नक्षत्र अग्नि १२५.२०(विभिन्न तिथियों में ग्रहों व नक्षत्रों के योग के शुभाशुभ फल का कथन - कृत्तिका प्रतिपद्भौम आत्मनो लाभदः स्मृतः ॥ षष्ठी भौमो मघा पीडा आर्द्रा चैकादशी कुजः ।), १२६.१ (नक्षत्र पिण्ड से शुभाशुभ का ज्ञान), १२६.१३ (नक्षत्रों की स्थिर, क्षिप्र आदि प्रकृति एवं करणीय कृत्यों का वर्णन - रोहिणी चोत्तरास्तिस्रो मृगः पञ्च स्थिराणि हि । अश्विनी रेवती स्वाती धनिष्ठा शततारका ॥), १२६.३३ (गण्डान्त का निरूपण), १३० (नक्षत्रों का आग्नेय आदि मण्डलों में विभाजन, मण्डल प्रकोप का देश व निवासियों पर प्रभाव), १३६ (त्रिनाडी नक्षत्र चक्र से फल का विचार), १७५.३५ (सूर्यास्त वाले नक्षत्र में उपवास का निर्देश - उपोषितव्यं नक्षत्रं येनास्तं याति भास्करः । ), १९६ (नक्षत्र व्रत : हरि का नक्षत्र - न्यास), २९३.३२ (मन्त्रों के संदर्भ में २७ नक्षत्रों के देवताओं के नाम - दस्रो यमोऽनलो धाता शशी रुद्रो गुरुर्दितिः।..), कूर्म २.२०.९ (कामना अनुसार विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध - स्वर्गं च लभते कृत्वा कृत्तिकासु द्विजोत्तमः । अपत्यमथ रोहिण्यां सौम्ये तु ब्रह्मवर्चसम् ।।), गरुड १.५९.२ (नक्षत्र स्वामी - कृत्तिकास्त्वग्निदेवत्या रोहिण्यो ब्रह्मणः स्मृताः ॥ इल्वलाः सोमदेवत्या रौद्रं चार्द्रमुदाहृतम् ॥ ), १.५९.१५( नक्षत्र का स्वरूप, नक्षत्रों में करणीय कृत्य - अश्विनीमैत्ररेवत्यो मृगमूलपुनर्वसु ॥ पुष्या हस्ता तथा ज्येष्ठा प्रस्थाने श्रेष्ठमुच्यते ॥), १.५९.३५(वार अनुसार नक्षत्र की श्रेष्ठता - विशाखात्रयमादित्ये पूर्वाषाढात्रये शशी ॥धनिष्ठात्रितयं भौमे बुधे वै रेवतीत्रयम् ॥), १.६० (नक्षत्र / रवि चक्र से फल का कथन), १.१२८.१० (नक्षत्र दर्शन से नक्त होने का उल्लेख - नक्षत्रदर्शनान्नक्तमनक्तं निशि भोजनम् ।), गरुड  २.४.१७५(नक्षत्र पञ्चक में मृत्यु पर दाह विधि), २.३५.१७(मृतक के संस्कार के अयोग्य ५ नक्षत्र), देवीभागवत ८.१७.१७ (शिशुमार चक्र में नक्षत्रों का न्यास- पुनर्वसुश्च पुष्यश्च श्रोण्यौ दक्षिणवामयोः ॥ आर्द्राश्लेषे पश्चिमयोः पादयोर्दक्षवामयोः ।), ८.२४.३९ (मास अनुसार देवी को नैवेद्य अर्पण - वैशाखमासे नैवेद्यं गुडयुक्तं च नारद ॥ ज्येष्ठमासे मधु प्रोक्तं देवीप्रीत्यर्थमेव तु ।), नारद १.१३.४६ (विष्णु के स्नान हेतु ग्रहों व नक्षत्रों के विशिष्ट योगों के नाम - अर्द्धोदये च सूर्यस्य पुष्यार्के रोहिणीबुधे।
तथैव शनिरोहिण्यां भौमाश्विन्यां तथैव च॥  ), १.५१.२ (५ कल्पों में से एक नक्षत्र कल्प का उल्लेख), १.५६.१७१ (नक्षत्र अनुसार कार्य का विचार - पूर्वात्रयं मघाह्यग्निविशाखायममूलभम्। अधोमुखं तु नवकं भानौ तत्रविधीयते॥), १.५६.२०४ (नक्षत्रों से वृक्षों की उत्पत्ति - उडुंबरश्चाग्निधिष्ण्ये रोहिण्यां जंबुकस्तरुः।), पद्म १.२५ (नक्षत्र अनुसार सूर्य / शिव के विभिन्न अङ्गों की विभिन्न नामों से पूजा - हस्तेन सूर्याय नमोस्तुपादावर्काय चित्रासु च गुल्फदेशं।स्वातीषु जंघे पुरुषोत्तमाय धात्रे विशाखासु च जानुदेशम्॥), ब्रह्म १.१११.३३ (विभिन्न नक्षत्रों में पितरों की अर्चना से विभिन्न फलों की प्राप्ति का कथन - कृत्तिकासु पितॄनर्च्य स्वर्गमाप्नोति मानवः।। अपत्यकामो रोहिण्यां सौम्ये तेजस्वितां लभेत्।), ब्रह्मवैवर्त्त २.६५.२ (देवी के बोधन, प्रवेश, अर्चन व विसर्जन हेतु उपयुक्त नक्षत्रों का कथन - आर्द्रायां बोधयेद्देवीं मूलेनैव प्रवेशयेत् ।। उत्तरेणार्च्चयित्वा तां श्रवणायां विसर्जयेत् ।।), ४.९६.७६ (श्रवण नक्षत्र की छाया से अभिजित् नक्षत्र की उत्पत्ति का कथन - ततः पितरमादाय सा चक्रे च विभागकम् । बभूव तेन नक्षत्रमभिजिन्नामकं पुरा ।। ), ब्रह्माण्ड १.२.२४.१३२ (ग्रह उत्पत्ति जनक नक्षत्र - ग्रहश्चांगिरसः पुत्रो द्वादशार्चिर्बृहस्पतिः । फाल्गुनीषु समुत्पन्नः पूर्वासु च जगद्गुरुः ।। ), २.३.१८ (नक्षत्र अनुसार श्राद्ध अनुष्ठान का फल - अपत्यकामो रोहिण्यां सौम्ये तेजस्विना भवेत् । प्रायशः क्रूरकर्माणि आर्द्रायां श्राद्धमाचरन् ॥), भविष्य १.३४ (नक्षत्र अनुसार सर्प दंष्ट का फल), १.१०२.४६ (नक्षत्र देवता व नक्षत्र पूजा का कथन - अश्विन्यामश्विनाविष्ट्वा दीर्घायुर्जायते नरः । व्याधिभिर्मुच्यते क्षिप्रमत्यर्थं व्याधिपीडितः ।), ४.१०७ (मास नक्षत्र के अनुसार नक्षत्र व्रत, अच्युत पूजा, साम्भरायणि - इन्द्र संवाद, शङ्कुकर्ण दैत्य का हनन - आदितः कृत्तिकां कृत्वा कार्त्तिके नृपसत्तम । कृशरामत्र नैवेद्यं पूर्वं मास चतुष्टयम् ।।), ४.१०८.२० (वैष्णव नक्षत्र पुरुष व्रत - मूले पादौ तथा जंघे रोहिण्यामर्चयेच्छुभे ।।जानुनी चाश्विनीयोगे आषाढे चोरुसंज्ञिते ।।), ४.१०९ (शिव नक्षत्र पुरुष व्रत का वर्णन - शिवायेति च हस्तेन पादौ पूज्यतमौ स्मृतौ ।। शंकराय नमो गुल्फौ पूज्यौ चित्रासु पांडव ।।), ४.११३ (ग्रह - नक्षत्र व्रत नामक अध्याय के अन्तर्गत ग्रहों की सौम्यता प्राप्ति हेतु नक्षत्र विशेष में ग्रह विशेष की पूजा का वर्णन - विशाखासु बुधं गृह्य सप्त नक्तान्यथाचरेत् । बुधं हेममयं कृत्वा स्थापितं कांस्यभाजने ।।), ४.१४५ (नक्षत्रों के कारण उत्पन्न व्याधि की शान्ति हेतु नक्षत्र होम विधि - कृत्तिकासु यदा कश्चिद्व्याधिं संप्रतिपद्यते । नवरात्रं भवेत्पीडा त्रिरात्रं रोहिणीषु च ।।), ४.१९२ (नक्षत्र दान विधि, दान द्रव्य - कृत्तिकासु महाभाग पायसेन ससर्पिषा । संतर्प्य ब्राह्मणान्साधूँल्लोकान्प्राप्नोत्यनुत्तमान् ।।), भागवत ५.२३.६ (शिशुमार के अङ्गों में नक्षत्रों का कल्पन - पुनर्वसुपुष्यौ दक्षिणवामयोः श्रोण्योरार्द्राश्लेषे च दक्षिणवामयोः पश्चिमयोः पादयोरभिजित् ) मत्स्य ५४.७ (नक्षत्र पुरुष व्रत विधि व माहात्म्य, विभिन्न नक्षत्रों में नारायण के विभिन्न अङ्गों की विभिन्न नामों से पूजा - मूले नमो विश्वधराय पादौ गुल्फावनन्ताय च रोहिणीषु। जङ्घेऽभिपूज्ये वरदाय चैव द्वे जानुनी वाश्विकुमारऋक्षे ), ५५.७ (आदित्य शयन व्रत के अन्तर्गत विभिन्न नक्षत्रों में सूर्य के विभिन्न अङ्गों की विभिन्न नामों से पूजा का वर्णन - हस्ते च सूर्याय नमोऽस्तु पादावर्काय चित्रासु च गुल्फदेशम्। स्वातीषु जङ्घे पुरुषोत्तमाय धात्रे विशाखासु च जानुदेशम् ), मार्कण्डेय ३३.९ (नक्षत्रों में श्राद्ध का फल - कृत्तिकासु पितॄनर्च्य स्वर्गमाप्रोति मानवः॥ अपत्यकामो रोहिण्यां सौम्ये चौजस्वितां लभेत् ।), ५८/५५ (कूर्म के विभिन्न अङ्गों में जनपदों की स्थिति और जनपदों पर नक्षत्रों के प्रभावों का वर्णन), लिङ्ग १.६१.४१ (ग्रहों के जनक नक्षत्रों के नाम - विशाखासु समुत्पन्नो ग्रहाणां प्रथमो ग्रहः।। त्विषिमान् धर्मपुत्रस्तु सोमो देवो वसुस्तु सः।। ), वराह १८१ (प्रतिमा के द्रव्य के अनुसार नक्षत्रों में प्रतिमा प्रतिष्ठा), वामन .३१ (काल की देह में नक्षत्र न्यास - यत्राश्विनी च भरणी कृत्तिकायास्तथांशकः। मेषो राशिः कुजक्षेत्रं तच्छिरः कालरूपिणः।। ), ५० (आषाढ अमावास्या को मृगशिरा नक्षत्र में बृहस्पति क प्रवेश का महत्व), ८० (नक्षत्र पुरुष का रूप ;पूजा विधान - मूलर्क्षं चरणौ विष्णोर्जङ्घे द्वे रोहिणी स्मृते। द्वे जानुनी तथाश्विन्यौ संस्थिते रूपधारिणः), वायु ६६.४६ (नक्षत्रों का वीथियों में विन्यास - अश्विनी कृत्तिका याम्या नागवीथिरिति स्मृता । पुष्योऽश्लेषा पुनर्वसू वीथिरैरावती मता।), ८२ (नक्षत्रों में श्राद्ध का फल), विष्णुधर्मोत्तर १.८५ (नक्षत्र वीथियों तथा नक्षत्रों में ग्रहों के चार से शुभाशुभ फल का ज्ञान - कृत्तिका याम्यवायव्ये नागवीथ्युत्तरोत्तरे । गजवीथीह्युदङ्मध्ये प्राजापत्यादयस्त्रयः ।।), १.८६ (प्रदेश पीडा वर्णन में देश अनुसार नक्षत्रों का कथन - कृत्तिकां रोहिणीं सौम्यं मध्यदेशस्य निर्दिशेत् । पीडिते त्रितयेऽतस्मिन्मध्यदेशः प्रपीड्यते ।।), १.८७.७ (जन्म नक्षत्र से आरम्भ कर चौथे, दशम, आदि नक्षत्रों के गुणों का कथन - यस्मिन्हि जननं यस्य जन्मर्क्षं तस्य तत्स्मृतम् । चतुर्थं मानसं तस्माद्दशमं कर्मसंज्ञितम् ।। ), १.८७.११ (ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जात्याश्रित नक्षत्रों का कथन - पूर्वात्रयमथाग्नेयं ब्राह्मणानां प्रकीर्तितम् ।। उत्तरात्रितयं पुष्यं क्षत्त्रियाणां प्रकीर्त्तितम् ।।), १.८८ (नक्षत्रों में तारकाओं की संख्या तथा नक्षत्रों के रक्त, पीत आदि वर्णों का कथन - रौद्रं पुष्यं तथा त्वाष्ट्रं वायव्यं वारुणं तथा । पौष्णं च पार्थिवश्रेष्ठ कथितं त्वेकतारकम्।।), १.८९ (जन्म, कर्म आदि नक्षत्र पीडा के अनुसार स्नान - सिद्धार्थकान्प्रियङ्गुं च शतपुष्पां शतावरीम् । स्नातव्यमम्भसि क्षिप्त्वा कर्मर्क्षे नृप पीडिते ।।), १.९१ (विभिन्न नक्षत्रों में स्नान हेतु विभिन्न ओषधियों से युक्त जल - वटाश्वत्थशिरीषाणां पत्राणि तु तिलैस्सह । सर्वगन्धोपपन्नानि कृत्तिकासु विधीयते ।।), १.९४.२२ (नक्षत्रों की राशियों में स्थिति - अश्विनी भरणी चैव कृत्तिकांशं चतुर्थकम् । मेषराशौ विनिर्दिष्टं नित्यं पार्थिवसत्तम ।।), १.९५.५४ (नक्षत्र आवाहन मन्त्र - आवाहयिष्यामि शुभां कृत्तिकां देवपूजिताम् । एहि साधारणे देवि ज्येष्ठदक्षसुते शुभे ।।), १.९६.७ (नक्षत्रों हेतु उपयुक्त चन्दन - कुङ्कुमं कृत्तिकानां तु रोहिणीनां मृगोद्भवम् । इल्वलानां च कर्पूरं रौद्रे नागमदं तथा ।।), १.९७.६ (नक्षत्रों हेतु देय पुष्प, धूपादि, नैवैद्य, पान, होमद्रव्य, मन्त्र - कृत्तिकासु च देयानि राजन्रक्तोत्पलानि च । चम्पकानि च रोहिण्या इल्विलायाः सितोत्पलम् ।।), १.१७४ (कृत्तिका नक्षत्र से आरम्भ होने वाले प्रतिमास नक्षत्र पूजन व्रत की विधि - नैवेद्यं कृसरं पूर्वमत्र मासचतुष्टयम् । यावकेन तथा कार्यं मध्यमं च चतुष्टयम् ।।), १.१९१.६ (शाम्बरायणि द्वारा प्रति मास मास - नक्षत्र पूजा से स्वर्ग प्राप्ति का कथन), २.९६ (कृत्तिका स्नान की विधि), २.९९ (विभिन्न नक्षत्रों में स्नान की विधि व काम्य फल का वर्णन), २.१५२.१ (प्रति मास जन्म नक्षत्र में जन्म क्षालन करने का निर्देश - राजा तु जन्मनक्षत्रे प्रति मासं समाचरेत् । जन्मनः क्षालनं कर्म यत्तत्पूर्वं मयेरितम् ।।), २.१६६ (मङ्गल के उदय नक्षत्र से लेकर नक्षत्रों की अग्निमुख, अश्वमुख आदि संज्ञाएं तथा उनके फल - अथ यस्मिन्नक्षत्रे भौम उदयं प्रतिपद्यते तस्मात्सप्ताष्टनवमर्क्षे पूष्णोमुखं नाम वक्त्रं करोति ), २.१६६ (विभिन्न नक्षत्रों में ग्रहों के चार के फल), ३.९६.३(विभिन्न नक्षत्रों में प्रतिमा प्रतिष्ठा के फलों का कथन), ३.९६.२७(विभिन्न नक्षत्रों में प्रतिमा प्रतिष्ठा के फलों का कथन - तेजस्विनी कृत्तिकासु भूतनिग्रहकारिणी। किञ्चिद्भूता ततः काले पुनर्दह्यति वह्निना ।।), ३.१०४.५७ (नक्षत्र आवाहन मन्त्र - आवाहयिष्यामि शुभां कृत्तिकां देवपूजिताम् । एहि साधारणे देवि ज्येष्ठे दक्षसुते शुभे।।), ३.३१७.२० (नक्षत्रों हेतु दान द्रव्य - कृत्तिकासु सुवर्णस्य दानं बहुफलं स्मृतम् । रक्तवस्त्रस्य रोहिण्यां सौम्यभे लवणस्य च।), ३.३१८ (नक्षत्रों हेतु दान द्रव्य - कृत्तिकासु महाभागाः पायसेन स सर्पिषा ।संतर्प्य ब्राह्मणान्साधूँल्लोकान्प्राप्नोत्यनुत्तमान् ।।), ३.२१४ (मास नक्षत्र व्रत - कृत्तिकास्वर्चयेद्देवं कार्तिकीप्रभृतिक्रमात् । यावत्स्यात्कार्तिकं भूयो नरसिंहमुपोषितः ।।), स्कन्द १.३.२.७.२२ (विभिन्न तिथियों, नक्षत्रों व राशियों में अरुणाचलेश के लिए देय द्रव्यों का कथन), ४.१.१५.१२ (नक्षत्र शब्द की निरुक्ति न क्षांतं हि तपोत्युग्रम् ; दक्ष की ६० कन्याओं द्वारा पति प्राप्ति हेतु तप, कन्याओं द्वारा पुंस्त्व प्राप्ति तथा सोम को पति रूप में प्राप्त करना), ४.१.२१.३९ (नक्षत्रों में पुष्य नक्षत्र की श्रेष्ठता का उल्लेख - पुष्योसि नक्षत्रगणे संक्रमः सर्वपर्वसु ।।), ७.१.११.२० (कूर्म रूपी भारत में नक्षत्रों का विन्यास - कृत्तिका रोहिणी सौम्यं तृतीयं कूर्मपृष्ठिगम् ॥ रौद्रं पुनर्वसुः पुष्यं नक्षत्रत्रितयं मुखे ॥), ७.१.२०.७३ (दक्ष द्वारा चन्द्रमा को २७ नक्षत्र संज्ञक कन्याओं को देने का उल्लेख), ७.१.२१.३६ (दक्ष की २७ कन्याओं में से चन्द्रमा की रोहिणी पर आसक्ति का सार्वत्रिक आख्यान - अथ याः कन्यका दत्ताः सप्तविंशतिरिंदवे ॥ तासां मध्ये महादेवि प्रिया तस्य च रोहिणी ॥), ७.२.१७.१३३ (गण्डान्त में जन्म का फल), वा.रामायण १.७२.१३ (विवाह के लिए उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र की प्रशंसा - उत्तरे दिवसे ब्रह्मन् फल्गुनीभ्याम् मनीषिणः । वैवाहिकम् प्रशंसन्ति भगो यत्र प्रजापतिः ॥), ६.४.५ (उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में राम की सेना का लङ्का को प्रस्थान), ६.४.५१ (मूल नक्षत्र : राम की सेना के प्रस्थान के समय मूल नक्षत्र को धूमकेतु से पीडा का उल्लेख), लक्ष्मीनारायण १.१५०.२६(ग्रहों की स्थिति के अनुसार नक्षत्रों की श्रेष्ठता - मूलेऽर्कः श्रवणे चन्द्रः प्रोष्ठपद्युऽत्तरे कुजः ।। कृत्तिकासु बुधश्चैव गुरौ चाथ पुनर्वसुः ।), १.१५८.२८ (नक्षत्र अनुसार श्राद्ध का फल - अपत्यकामो रोहिण्यां तेजस्कामो मृगोत्तमे ।। क्रूरकर्मा तथाऽऽर्द्रायां धनकामः पुनर्वसौ ।), १.३११ (समित्पीयूष नृप की २७ पत्नियों द्वारा कृष्ण की अर्चना से २७ नक्षत्र बनने का वृत्तान्त), १.५२६.५३(ऋक्षज वर्ष का कथन- चान्द्रमेकादशोनं तु त्रिंशद्धीनं तु ऋक्षजम् । शीतातपौ तथा वृष्टिर्मानवाब्देन जायते ।।), २.१५६.१०४ (देवायतन स्थापना के संदर्भ में शरीर के अङ्गों में नक्षत्रों, ग्रहों , अक्षरों आदि के न्यासों का वर्णन - रोहिणीभ्योऽपि हृदये मृगशिरसे मस्तके । आर्द्रायै चापि केशेषु पुनर्वसवे भालके ।। ), २.१७५.१ (विभिन्न नक्षत्रों में विभिन्न कृत्यों के सम्पादन का निर्देश - रोहिणी चोत्तरास्तिस्त्रो ध्रुवासंज्ञा मता यतः ।तासु देवालयं ग्रामखातं नृपाभिषेचनम् ।।), २.१७५.६९ (विभिन्न ग्रहों में नक्षत्रों की स्थिति का फल - रवौ हस्तो मृगश्चन्द्रे गुरौ पुष्यं कुजेऽश्विनौ । अनुराधा बुधे शुक्रे रेवती रोहिणी शनौ ।।), ३.१०३.११ (विभिन्न नक्षत्रों में दान के फलों का वर्णन - कृत्तिकायां प्रदानेन भवेद्वै विगतज्वरः ।। रोहिण्यां सम्प्रदानेन चापत्यवान् भवेज्जनः ।), ३.१५३.३५ (नक्षत्रों के वारों के साथ योगों के अनुसार औत्पातिक, अमृतयोगों, विषयोगों आदि का कथन - धनिष्ठात्रितयं भौमे बुधे तु रेवतीत्रयम् । रोहिण्यादित्रयं गुरौ शुक्रे पुष्यत्रयं रमे! ।।), ३.१५३.७८ (यात्रा, वेष धारण, कन्यादान आदि हेतु शुभ नक्षत्रों का कथन - कृत्तिकादौ पूर्वयात्रां सप्तर्क्षाणि तु संव्रजेत् ।। मघादौ दक्षिणे गच्छेदनुराधादौ पश्चिमे ।), महाभारत भीष्म ३.१२(व्यास द्वारा महाभारत युद्ध से पूर्व नक्षत्रों में ग्रहों की स्थिति का कथन - श्वेतो ग्रहस्तथा चित्रां समतिक्रम्य तिष्ठति । अभावं हि विशेषेण कुरूणां तत्र पश्यति ।।), अनुशासन ६४(विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न - भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य - कृत्तिकासु महाभागे पायसेन ससर्पिषा। सन्तर्प्य ब्राह्मणान्साधूँल्लोकानाप्नोत्यनुत्तमान्।।), ११०(अङ्गों में रूप प्राप्ति के लिए चन्द्र व्रत के संदर्भ में शरीर के विभिन्न अङ्गों में नक्षत्रों का न्यास - मार्गशीर्षस्य मासस्य चन्द्रे मूलेन संयुते। पादौ मूलेन राजेन्द्रि जङ्घायामथ रोहिणीम्।। ), शौ.अ. ५.२४.१०(चन्द्रमा नक्षत्राणां अधिपतिः),  nakshatra

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